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खंक ३
धर्मपरी ॥७ ॥
सा०॥ १३ ॥ जो ज्ञानवंत ब्रह्मा होये, तो कां पूजे अगस्ति ॥ सृष्टि मारी को हरी गयो, कहो ऋषिवर किहां वस्ति ॥ सा ॥ १४ ॥ ब्रह्माए सहु सरजीयुं, तो सरजी नहीं एक
र ॥रीबमीने सेवे सदा, कामांध होये गमार ॥सा०॥ २५॥ नारायण जाणे सह, सृष्टि तणो संहार ॥ तो सीताहरण नहीं जाणीयो, पूज्यो सयल संसार ॥ १६ ॥ जकमबंध बांध्या थका, बूटे सघला लोक ॥ रामचं समरथ सदा, नांजे सहुनो शोक ॥ सा ॥ १७ ॥ रावण पुत्र पराक्रमी, इंजित जेहनुं नाम ॥ सकल सैन तेणे बांधीयो, लक्ष्मण ने वली राम ॥ सा० ॥ १७ ॥ शोक सहुने उपन्यो, रवि जगमते एह ॥ सस्प विसख्या औषधी, नावे तो मरे तेह ॥ सा॥ १७ ॥ हणुमंते वेगे करी, श्राणी सल्प विसस्य ॥ राम लक्ष्मण सेना तणां, नांज्या सघलां शल्य ॥ सा ॥ २० ॥ निज बंधन जेणे नहीं टल्यां, नहीं टल्या शोक संताप ॥ परनां ते केम टालशे, विचारो महा पाप ॥ सा ॥ २१॥ खंग त्रीजे ही ढालमां, जाख्या नवनवा नेद ॥ रंगविजय || शिष्य एम कहे, नेमने हर्ष उमेद ॥ सा० ॥ ॥
उदा. ब्राह्मण सहु ना रह्या, नहीं उपजे ते बोल ॥ मनोवेग मन उलस्यो, विप्र हुवा
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