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82 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
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अस्स । इससे प्रमाणित होता है, पार्श्वनाथ जी में कोई खास विशिष्टता मानी जाती थी । पुरुषादानीय का अर्थ है पुरुषों में आदरणीय । इस विशेषण से भगवान पार्श्वनाथ की विशिष्टता लोकप्रियता एवं प्रभाव पृथक् रूप से परिलक्षित होता है ।
जीवन परिचय : इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में काशी देश में बनारस नाम का नगर था । वहाँ काश्यपगोत्री राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम वामादेवी था। एक बार उन्होंने वैशाख कृष्ण द्वितीया के दिन प्रातःकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चौदह शुभ स्वप्न देखे और मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा । तभी पार्श्वनाथ जी के जीव ने माता के गर्भ में प्रवेश किया। नव माह पूर्ण होने पर पौषकृष्ण एकादशी के दिन अनिल योग में प्रभु का जन्म हुआ। तब देवों ने आकर जन्माभिषेक करके उनका नामकरण पार्श्वनाथ किया।
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भगवान पार्श्वनाथ के देह की कांति नीलवर्ण की थी और ऊँचाई नौ हाथ की थी। उनकी आयु सौ वर्ष की थी और व्रत पर्याय सत्तर वर्ष की थी । तीर्थंकर नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के निर्वाण का अन्तरकाल तिरासी हजार साढ़े सात सौ वर्ष का था।
कुमार पार्श्व सोलह वर्ष के हुए तब एक दिन क्रिड़ा करते हुए नगर से बाहर उद्यान में पहुँच गए। वहाँ एक तापस अपनी तपस्या का प्रदर्शन करता हुआ पंचाग्नि के मध्य बैठा था और अग्नि को अधिक प्रज्वलित करने के लिए उसमें और लकड़ियाँ डाली । कुमार पार्श्व ने अवधिज्ञान से जानकर तापस को रोकने का प्रयास किया, कि लकड़ी में जीव हैं, लेकिन तापस ने अपने अभिमान में उनकी बात को नहीं माना। उसमें तब पार्श्वकुमार ने जलती लकड़ी को निकालकर उसे तोड़ कर दिखाया, अधजले सर्प का जोड़ा निकला। पार्श्वकुमार के उद्बोधन से वह सर्प युगल शांति से मरकर धरणेन्द्र पद्मावती देव बने ।
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पार्श्वकुमार जब तीस वर्ष के हुए तब उन्हें मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मज्ञान हुआ और वे दीक्षा लेने के लिए प्रवृत्त हुए। पार्श्वकुमार विमला नाम की पालकी में बैठकर अश्ववन में पहुँचे। वहाँ उन्होंने तेले का नियम लेकर सिद्ध भगवान को नमस्कार करके पौषकृष्ण एकादशी के दिन प्रातःकाल तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षा अंगीकार की। 356
केवलज्ञान : दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् मुनि पार्श्व चार माह तक छद्मस्थ अवस्था में विचरण करते हुए दीक्षावन अश्ववन में पहुँचे और देवदारु के विशाल वृक्ष के नीचे तेले का नियम लेकर ध्यानस्थ हुए। और सात दिन तक ध्यानस्थ रहे। तभी आकाशमार्ग से जाते हुए कमठ तापस का जीव, जो शम्बर असुर बना था, को अपने पिछले भव का वैर-विरोध याद आ गया। तब उसने क्रोधवश यमराज की भाँति सात दिन तक अतिवृष्टि की, छोटे-मोटे पहाड़ लाकर ध्यानस्थ प्रभु के पास गिराए । तब धरणेन्द्र-पद्मावती ने प्रभु पार्श्वनाथ को सर्प फन से आवृत कर उस भीषण तूफान से