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462 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
5. तुच्छौषधि सेवन : जो वस्तु खाने के कम काम आए तथा उससे अधिक __मात्रा में बाहर फेंकी जाए, ऐसी वस्तु का सेवन करना, जैसे सीताफल
आदि। पन्द्रह कर्मादान : कर्म सम्बन्धी अतिचार 15 बताए गए हैं। श्रावक महापापपूर्ण निषिद्ध व्यवसायों को जानकर उनका सर्वथा त्याग करता है। वे निषिद्ध व्यवसाय कर्मादान कहलाते हैं।
1. अग्नि कर्म : अग्नि संबंधी व्यापार, जैसे - कोयला बनाना, ईंटें बनाना ___ आदि। 2. वन कर्म : वनस्पति संबंधी व्यापार, जैसे वृक्ष काटना, घास काटना आदि। 3. शकट कर्म : वाहन संबंधी व्यापार, जैसे - गाड़ी, मोटर, ताँगा आदि
वाहन बनाना या बेचना। 4. भाट कर्म : वाहन, मकान आदि किराये पर देना। 5. स्फोट कर्म : भूमि फोड़ने का व्यापार, जैसे खाने खुदवाना, नहरें
बनवाना, मकान बनाने का व्यवसाय । 6. दन्त-वाणिज्य : हाथी दाँत आदि का व्यापार। 7. लाक्षा वाणिज्य : लाख आदि का व्यापार। 8. रस वाणिज्य : मदिरा आदि का व्यापार । 9. केश वाणिज्य : बालों व बाल वाले प्राणियों का व्यापार । 10. विष वाणिज्य : जहरीले पदार्थ तथा हिंसा अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार। 11. यन्त्र पीड़न कर्म : यंत्रों द्वारा तिलादि द्रव्यों को पेरने का व्यवसाय। 12. निर्लोच्छन कर्म : प्राणियों को छेदने, काटने का व्यवसाय। 13. दावाग्निदान कर्म : जंगल, खेत आदि में आग लगाने का कार्य। 14. सर दहतलाय शोषणता कर्म : सरोवर, झील, तालाब आदि को सुखाने
का कार्य। 15. असीतजन पोषणता कर्म : कुलटा स्त्रियों के पोषण, हिंसक प्राणियों का
पालन, समाज विरोधी तत्त्वों का संरक्षण आदि।
ये पन्द्रह कर्मादान रूप पन्द्रह व्यवसाय श्रावक के लिए मन-वचन-काया से कृत-कारित अनुमोदित रूप से सर्वथा त्याज्य है।
3. अनर्थ दंड - विरमण व्रत : निष्प्रयोजन पापाचरण अनर्थदण्ड है। मनुष्य यदि अपने जीवन को विवेकशून्य एवं प्रमत्त रखता है, तो बिना प्रयोजन भी हिंसादि कर बैठता है। श्रावक इस अनर्थदण्ड से विरक्त रहता है। अनर्थदण्ड के चार भेद हैं
1. अपध्यानाचरित : अशुभ ध्यान पूर्वक किया गया आचरण अपध्यानाचरित