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नीति मीमांसा * 461
विवेचन किया गया है। इस व्रत के पाँच अतिचार निम्नलिखित हैं: - 1. ऊर्ध्व दिशा परिमाणातिक्रमण : ऊर्ध्व दिशा में जो गमनागमन की क्षेत्र
की मर्यादा रखी हो उसका उल्लंघन करना। 2. अधोदिशा परिमाणातिक्रमण : नीची दिशा में जो गमनागमन की क्षेत्र __की मर्यादा रखी हो, उसका उल्लंघन करना। 3. तिर्यग्दिशापरिमाणातिक्रमण : 4 दिशाओं और 4 विदिशाओं में जितने
क्षेत्र की मर्यादा रखी हो, उसका अतिक्रमण करना। 4. क्षेत्रवृद्धि : सभी दिशाओं में जितने क्षेत्र की मर्यादा रखी हो, उसे और
बढ़ाकर गमनागमन करना। 5. स्मृतिभ्रंश : जितने क्षेत्र की मर्यादा की हो उसका स्मरण न रखकर, संदेह
वश मर्यादा को तोड़ना। इन पाँचों अतिचारों का पूर्ण त्याग करके ही श्रावक अपने व्रत का उपयुक्त प्रकार से पालन कर सकता है। इस व्रत का लक्ष्य यही है, कि श्रावक के एक निश्चित सीमा से बाहर जाकर असत्य, हिंसा आदि पापाचरण का पूर्ण त्याग हो।
2. उपभोग परिभोग परिमाण व्रत : जो वस्तु एक बार ही प्रयोग में ली जाती है, उसे उपभोग कहते हैं, जैसे-भोजन-पानी आदि। जो वस्तु पुनः-पुनः काम आती है, वह परिभोग कहलाती है, जैसे- शय्या, वस्त्र आदि। उपभोग-परिभोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा को निश्चित करना उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत है।
उपभोग परिभोग के दो भेद हैं - 1. भोजन तथा 2. कर्म। इस व्रत का उद्देश्य जीवन की अन्न-वस्त्रादि वस्तुओं तथा उनकी प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रतिदिन के व्यावसायिक कार्यों का आवश्यकता से अधिक स्वीकार नहीं करना है। अर्थात् श्रावक प्रत्येक उपभोग-परिभोग की वस्तु को निश्चित मात्रा तक प्रयोग में लेने का प्रत्याख्यान करता है।
भोजन में बाह्य तथा आभ्यान्तर दोनों प्रकार के समस्त भोग योग्य पदार्थों का अन्तर्भाव हो जाता है। भोजन सम्बन्धि अतिचार पाँच हैं। 1. सचित्ताहार : पृथ्वी, जल तथा वनस्पति काय वाले जीव शरीरों का
सचेतन रूप में भक्षण करना। 2. सचित्त पडिबद्धाहारे : बीज, गुठली आदि सचेतन वस्तु सहित फलादि
का भक्षण करना। 3. अपक्व आहार : अग्नि पर पकाए बिना ही कच्चे शाक आदि का भक्षण
करना। 4. दुष्पक्व आहार : जो वस्तु अच्छी तरह से पकाई न हो उसका सेवन
करना।