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452 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
अधिक से अधिक सात जिनकल्पी साधु रह सकते हैं, तो भी वे परस्पर संभाषण नहीं करते हैं। जो भी उपसर्ग या परिषह आ जाए, तो उसे सहन करते हैं। रोग में ये किसी भी प्रकार की चिकित्सा नहीं कराते हैं। वरन् जैसे भी हो सहन करते हैं।
जिनकल्पी साधु अपवाद मार्ग का सेवन नहीं करते हैं। दस प्रकार की समाचारी में से पाँच प्रकार की समाचारी इन जिन कल्पियों की है। वह इस प्रकार है - 1. आप्राच्छन्न, 2. मिथ्याकार, 3. आवश्यकी, 4. नैषेधिकी, 5. गृहस्थोपसंपदा – गृहस्थ की आज्ञा लेकर उतरना-बैठना।
जिनकल्पी साधुओं का श्रुतज्ञान जघन्य की अपेक्षा नवम पूर्व की तृतीय आचार वस्तु तक उत्कृष्ट की अपेक्षा भिन्न दशपूर्व तक ही सीमित रहा करता है, संपूर्ण नहीं।” इनका शारीरिक संहनन वज्र ऋषभ नाराच नामक है और मानसिक संहनन वज्र कुड्य-वज्र की दीवार के तुल्य धैर्य है अर्थात् इनका धैर्य वज्र भित्ति के समान अभेद्य होता है और वही इनका मानसिक बल है।"
क्षेत्र की अपेक्षा से इनकी स्थिति अनेक प्रकार की है। इनका 15 कर्मभूमियों में ही जन्म होता है। अतः इनकी स्थिति, जन्म एवं सद्भाव की अपेक्षा 15 कर्मभूमियों में ही मानी जाती है। काल की अपेक्षा-उत्सर्पिणी काल व अवसर्पिणी काल में जन्म की अपेक्षा से तृतीय व चतुर्थ आरे में ही उनकी स्थिति मानी गई है। चारित्र की अपेक्षा से जो प्रतिपद्यमान चारित्री है, उनको सामायिक एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थित मानना चाहिये, क्योंकि जो मध्यम तीर्थंकर एवं विदेह क्षेत्र में रहे हुए तीर्थंकर के तीर्थ में रहने वाले हैं, वे सामायिक चारित्र में एवं जो प्रथम एवं चरम तीर्थंकर के तीर्थवर्ती हैं, वे छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थित रहते हैं। जो प्रतिपन्न चारित्रि हैं, उनकी स्थिति उपशम श्रेणी में सूक्ष्मसंपराय एवं यथाख्यात चारित्र में होती है। तीर्थ की अपेक्षा जिनकल्पियों की स्थिति नियम से तीर्थ में ही होती है, तीर्थ के व्यवच्छिन्न होने पर नहीं।”
जिनकल्पियों का कल्प दस प्रकार का है - 1. आचेलक्य, 2. औद्देशिकी , 3. शय्यातर पिंडत्याग, 4. राजपिंडत्याग, 5. कृतिकर्म, 6. महाव्रत, 7. ज्येष्ठता, 8. प्रतिक्रमण, 9. मासकल्प, 10. पर्युषण कल्प।"
इन कल्पों में मध्यम तीर्थंकर के तीर्थवर्ती साधुओं के चार कल्प अवस्थित होते हैं, नियम से पालनीय होते हैं, वे चार ये होते हैं - 1. शय्यातर पिंडत्याग, 2. कृतिकर्म, 3. महाव्रत, 4. पुरुष ज्येष्ठता। शेष 6 कल्प उनके लिए अनवस्थित थे।
प्रथम तीर्थंकर एवं अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में रहने वाले जो साधु हैं, उनके लिए तो 10 प्रकार का कल्प अवस्थित ही है अर्थात् अवश्य पालने योग्य है।
आचेलक्य का तात्पर्य है, कि वस्त्रादि परिग्रह से रहित होना। जिनकल्पी साधु वस्त्रादि परिग्रह का पूर्ण त्याग करते हैं। स्थविर कल्पियों के लिए वस्त्रों को धारण