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नीति मीमांसा* 451
ग्रहण करते समय अपने हाथ से पंचमुष्ठि लोच करते हैं। यह परम्परा भगवान ऋषभदेव से चली आ रही है। लोच उग्रतप है, कष्ट सहिष्णुता की बड़ी भारी कसौटी है। लोच करने से निर्लेपता, पश्चात् कर्म वर्जन, पुरः कर्म वर्जना, कष्ट सहिष्णुता ये चार गुण प्राप्त होते हैं।"
लोच करने के कारण इस प्रकार बताए गये हैं - 1. केश होने से अपकाय के जीवों की हिंसा होती है। 2. भीगने से जुआं उत्पन्न होती हैं। 3. खुजलाता हुआ श्रमण उसका हनन कर देता है। 4. खुजलाने से सिर में नखक्षत हो जाते हैं।
उपर्युक्त कारणों को ध्यान में रखकर मुनि को अपने केशों को हाथों से लोच करना ही श्रेयस्कर कहा है।
वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को पर्युषण के पश्चात्-अधिकरण युक्त कलह-विवादयुक्त वाणी बोलना नहीं कल्पता है। यदि ऐसा कटुक्लेश उत्पन्न हुआ हो तो परस्पर क्षमायाचना कर लेनी चाहिये। गुरुजन भी छोटे श्रमणों से क्षमायाचना कर लें। निश्चय से श्रमण धर्म का सार उपशम-क्षमा ही है।"
१. जिनकल्पी साधु की चर्या (मर्यादा) : जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के जिनकल्प और स्थविरकल्प ऐसे दो भेद कहे हैं। जो उत्तम संहननधारी हैं, उनके जिनकल्प होता है। वर्तमान कलियुग में जिनकल्पी साधु नहीं होते, क्योंकि पंचम आरे में उत्तम संहनन का अभाव होता है, हीन संहनन ही होता है। अतः वर्तमान में स्थविर कल्पी साधु ही होते हैं। स्थविर कल्प इस प्रकार बताया है, कि पाँच प्रकार के वस्त्रों का त्याग करना, अकिंचनवृत्ति धारण करना और प्रतिलेखन पिच्छिका ग्रहण करना। इसके अतिरिक्त श्रमण के जो 28 गुण पूर्व में बताए गए हैं, वे सभी स्थविर कल्पी साधुओं में होने चाहिये।
जिनकल्पी साधुओं को ही एकल विहारी स्वीकार किया गया है। उनकी विशेषता बताते हुए कहा गया है, कि तप, सूत्र, सत्य, एकत्वभाव, उत्तम संहनन और धैर्य इन सबसे परिपूर्ण दीक्षा और आगम में बली मुनि ही एकल विहारी हो सकता है।" जिनकल्प को स्वीकार करने वाला श्रमण जिस ग्राम में मास कल्प करता है, वहाँ छह भागों की कल्पना करता है। जिस भाग में एक दिन में भिक्षा चर्या कर ली गई हो, वहाँ फिर यह सातवें दिन ही भिक्षाचर्या करता है। भिक्षाचर्या करना अथवा एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाना यह तृतीय पौरुषी में ही करता है। जहाँ चतुर्थ पौरुषी आ जाती है, वह वहीं ठहर जाता है, अन्यत्र नहीं जाता है। पूर्वोक्त दो एषणाओं के अभिग्रह से अलेपकृत लेपरहित जिसका लेप न लगे ऐसे भक्त-पान को ग्रहण करता है। एषणादि विषय के बिना किसी के भी साथ बात नहीं करते हैं। एक बस्ती में