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438 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
को ग्रहण करना। 2. भक्षित : सचित्त पानी, पृथ्वी, वनस्पति से बने भोजन को लेना। 3. निक्षिप्त : पृथ्वी, पानी, तेजवायु, वनस्पति या जीवों पर रखा भोजन लेना। 4. पिहित : जो आहार सचित्त फलों से ढका हो। 5. साहरीय : जिस पात्र में अकल्पनीय वस्तु पड़ी हो, उसमें से आहार लेना। 6. दायक : बालक, अन्धा व गर्भवती से आहार लेना। 7. उन्मिश्र : अचित के साथ सचित मिला आहार लेना। 8. अपरिणत : जो आहार पूरा पका न हो। 9. लित्त : अकल्पनीय या गर्हित वस्तु से भरे हुए हाथों से दिया आहार। 10. छर्दित : घी टपकता हुआ या गिरता हुआ भोजन लेना।
परिभोगेषणा : भोजन करते समय पूरा-पूरा विवेक रखना परिभोगेषणा है। इसके पाँच दोष हैं -
1. अंगार दोष : आहार को आसक्ति के साथ खाना। 2. धूम दोष : अमनोज्ञ आहार की प्राप्ति पर देने वाले की निन्दा या क्रोध
करना। 3. संयोजना दोष : स्वाद वृद्धि के लिए वस्तुएँ मिलाकर खाना। 4. प्रमाणातिरेक : भूख से अधिक मात्रा में खाना। 32 कौर से अधिक
आहार करना दोष है। आठ कौर का आहार करना अल्पाहार है। 12 कौर का आहार अपार्ध उनोदरी है। 16 कौर का आहार अर्ध उनोदरी है। 24 कौर का आहार उनोदरी (भूख से कम खाना) है। कौर का आहार निम्बू
जितना कहा गया है। 5. पानैषणा : साधु को सामान्य कच्चा पानी पीना वर्जित है। जैन साधु को
उबालकर ठण्डा किया हुआ पानी अर्थात् जीवों से रहित पानी लेना चाहिये। साधु उचित (निर्दोष) पानी को विधि पूर्वक ग्रहण करते हैं। साधु
के लिए 21 प्रकार का पानी कल्पनीय बताया है - 1. उत्पेदिक : आटे से लिप्त बर्तन का धोवन पानी। 2. संसकेमि - उबली हुई सब्जी को शीतल जल से धोए जाने पर तैयार हुआ
जल। 3. चावलों का धोवन। 4. तिल का धोवन। 5. तुष का धोवन। 6. जौ का धोवन। 7. उबले चावलों का पानी-ओसामन।