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नीति मीमांसा * 437
बिना साधु को देना। 16. अध्यवपूरक : साधुओं का आगमन सुनकर अपने भोजन में अधिक
सामग्री मिलाकर भोजन बनाना व देना। 2. उत्पादन के दोष : साधु द्वारा लगने वाले 16 दोष इस प्रकार हैं - 1. धात्रीकर्म : बच्चे को खेल-खिलाकर या गोद में लेकर आहार प्राप्त
करना। 2. दूती कर्म : गृहस्थ का संदेश एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचा कर
आहार लेना। 3. निमित्त : गृहस्थ को शुभ, अशुभ, भूत-भविष्य बताकर आहार लेना। 4. आजीव : अपनी जाति कुल की विशेषता बताकर आहार लेना। 5. वनीपक : गृहस्थ जिसका भक्त हो, उसकी प्रशंसा करके या दीनता
दिखाकर आहार लेना। 6. चिकित्सा : औषधि बताकर या वैद्यगिरि करके आहार लेना। 7. क्रोध : तप का प्रभाव या शाप का भय दिखाकर क्रोधित होकर आहार
लेना। 8. मान : स्वयं को तेजस्वी, प्रतापी बताकर आहार लेना। 9. माया : कपट करके या विभिन्न वेशभूषा पहनकर आहार लेना। 10. लोभ : आहार लोलुप बनकर भटकते हुए आहार लेना। 11. पूर्व पश्चात् संस्तव : आहार करने से पूर्व या पश्चात् देने वाले की प्रशंसा
करना। 12. विद्या : स्त्री रुप देवता से अधिष्ठित जयादि से सिद्ध होने वाली अक्षरों
की रचना विशेष को विद्या कहते हैं, ऐसी विद्या का प्रयोग करके आहार
लेना। 13. मन्त्र : पुरुष रुप देवता से अधिष्ठित ऐसी अक्षर रचना जो पाठ मात्र से
सिद्ध हो जाये, उसे मन्त्र कहते हैं। ऐसे मन्त्र के प्रयोग से आहार लेना। 14. चूर्ण : अदृश्य करने वाले सुरमें (अंजन) आदि का प्रयोग करके आहार
लेना। 15. योग : सिद्धियाँ बताकर आहार लेना। 16. मूल कर्म : गर्भ-स्तम्भ, गर्भाधान, गर्भपात आदि के लिए औषधि देकर
आहार लेना। 3. ग्रहण एषणा के दस दोष" : साधु व गृहस्थ दोनों के द्वारा लगने वाले भोजन के दोष 10 प्रकार के हैं -
1. शंकित : विशेष साधु के निमित्त बने होने की शंका होने पर भी भोजन