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नीति मीमांसा 427
करता, समितियों से युक्त है, शत्रु-मित्र पर समभाव रखता है, जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानता है, जो समस्त पदार्थों के स्वरूप को जानता है, जिसने संसार के स्रोत को छेद डाला है, जो पूजा-सत्कार और लाभ की इच्छा नहीं करता, जो धर्म का अर्थ जानता है, धर्मज्ञ है, जितेन्द्रिय, मुक्ति योग्य और शरीर ममता के त्यागी हैं, उसे निर्ग्रथ कहना चाहिये ।
जैसा कि प्रवचनसार में भी कहा है व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, लोच, आवश्यक अचेलपना, अस्नान, भूमि शयन, अदंत धावन, खड़े-खड़े भोजन और एक बार आहार-ये वास्तव में श्रमणों के मूल-गुण जिनवरों ने कहे हैं, उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है।"
आगमों में साधु का संपूर्ण विवेचन करने के लिए, उसके 27 गुण बताए गए
हैं ।
साधु के सत्ताई गुण -
1-5.
पच्चीस भावनाओं के साथ पाँच महाव्रतों का पालन करना । 6-10. पाँच इन्द्रियों का संवर करना-विषयों से निवृत्ति करना । 11-14. चार कषायों से निवृत्त होना ।
15.
16.
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18.
19.
20.
मन समाधारणीया अर्थात् मन को वश में करके धर्म मार्ग में लगाना । वचः समाधारणीया अर्थात् प्रयोजन होने पर परिमित और सत्य वाणी बोलना ।
काय समाधारणीया अर्थात् शरीर की चपलता को रोकना । भावसत्य-अन्तःकरण के भावों को निर्मल करके धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में जोड़ना ।
करण सच्चे - करण सत्तरी के सत्तर बोलों से युक्त हो तथा साधु के लिए जिस-जिस समय जो जो क्रियाएँ करने का विधान शास्त्र में किया गया है, उन्हें उसी समय करना ।
जोग सच्चे मन, वचन और काय के योगों की सत्यता व सरलता रखे ।
साधु तीन वस्तुओं से सम्पन्न हो । यथा ज्ञानसम्पन्न अर्थात् मति ज्ञान, श्रुतज्ञान, अंग, उपांग, पूर्व आदि जिस काल में जितना श्रुत विद्यमान हो, उसका उत्साह के साथ अध्ययन करे। वाचना, पृच्छना, परिवर्तना आदि करके ज्ञान को दृढ़ करे और यथायोग्य दूसरों को ज्ञान देकर ज्ञान की वृद्धि करे।
साधु सम्यग्दर्शन से सम्पन्न हो अर्थात् देव आदि का भयानक उपसर्ग आने पर भी सम्यक्त्व से चलित न हो । शंका, कांक्षा आदि
21-23. सम्पन्नतिए
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