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426 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
तीन करण-करना, कराना, अनुमोदन करना। तीन योग - मन, वचन और कर्म। अर्थात् संपूर्ण रूप से बुराइयों का त्याग करता हूँ। मैं अपने पूर्व पापों का प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी गुरु साक्षी से निन्दा करता हूँ, आत्म साक्षी से गर्दा करता हूँ। मैं अपनी पापयुक्त आत्मा को छोड़ता हूँ।
यही अनगार चारित्र का सूक्ष्म स्वरूप है। जो किसी प्रकार के आगार (अपवाद) से रहित है। जो सांसारिक बन्धनों से पृथक् रहकर आध्यात्म साधना द्वारा अन्तर्मुखी जीवन व्यतीत करते हैं, वे अनगार हैं। तीर्थंकर भगवान इन्द्रिय निग्रह करने वाले, मुक्ति के योग्य और अशुभ योग के त्यागी साधु का चार नामों से वर्णन करते हैं- 1. माहन, 2. श्रमण, 3. भिक्षु और 4. निर्ग्रन्थ। जैसा कि सूत्र कृतांग में उल्लेख
"अहाह भगवं एवं से दंते दविए, वोसट्टकाए त्ति वच्चे माहणेत्तिवा, समणेत्तिवा, भिक्खुत्तिवा, निग्गंथेत्तिवा, तं नो बूहि महागुणी।
1. माहन : जो समस्त पापों से विरत हो चुका है, किसी से राग-द्वेष नहीं करता, कलह नहीं करता, किसी को झूठा दोष नहीं लगाता, किसी की निंदा नहीं करता, संयम में अप्रीति तथा असंयम में प्रीति नहीं करता, झूठ नहीं बोलता और मिथ्या-दर्शन-शल्य से अलग रहता है, जो पाँच समितियों युक्त है, ज्ञानादि गुणों से युक्त है, सदा जितेन्द्रिय है, किसी प्रकार क्रोध नहीं करता और मान नहीं करता वह माहन कहलाता है।
2. श्रमण : जो साधु पूर्वोक्त गुणों से युक्त है, उसे श्रमण भी कहना चाहिये। साथ ही श्रमण वह है, जो शरीर में आसक्त न हो, किसी भी सांसारिक फल की कामना न करे, हिंसा, मृषावाद, मैथुन और परिग्रह न करे, क्रोध, मान, माय और लोभ तथा राग-द्वेष न करे, इसी प्रकार जिन-जिन बातों से इस लोक और परलोक में हानि दिखती है तथा जो आत्मा के द्वेष के कारण हैं, उन सब कर्म बन्धन के कारणों से जो पहले ही निवृत्त है तथा जो इन्द्रिय जयी, मुक्ति जाने योग्य और शरीर की आसक्ति से रहित है, उसे श्रमण कहना चाहिये।
3. भिक्षु : श्रमण के जो गुण कहे हैं, वे सब भिक्षु में होने चाहिये। उनके अतिरिक्त जो अभिमानी नहीं है, विनीत है, नम्र है, इन्द्रियों को और मन को वश में रखता है, मुक्तिगमन के योग्य गुणों से युक्त है, शरीर ममता का त्यागी है, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को सहन करता है, आध्यात्म योग से शुद्धचारित्र वाला है, उस साधु को भिक्षु कहना चाहिये।"
4. निर्ग्रन्थ : निर्ग्रन्थ में उपर्युक्त गुण होने के साथ ही जो रागद्वेष से रहित होकर रहता है, आत्मा के एकत्व को जानता है, वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता है, जिसने आश्रव द्वारों को रोक दिया है, जो बिना प्रयोजन अपने शरीर की क्रिया नहीं