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तत्त्व मीमांसा 407
आत्मा के क्रमिक विकास रूपी गुणस्थानों को प्राप्त करते हुए ही अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मोक्ष प्राप्ति के साधन को जानने के पश्चात् उसके स्वरूप को भी जानना चाहिये।
मुक्त आत्मा शरीर रहित है, अतएव शरीर सम्बन्धी किसी भी प्रकार की उपाधि वहाँ नहीं है। वहाँ जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, दुःख नहीं, दारिद्र नहीं, कर्म नहीं, काया नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, चाकर नहीं, ठाकर नहीं, भूख नहीं, तृषा नहीं, रूप नहीं, रस नहीं, गंध नहीं, स्पर्श नहीं, वह न छोटा है, न बड़ा है, न गोल है, न चौरस है, न त्रिकोण है, न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है। वरन् वह ज्ञाता है, परिज्ञाता है, वह जीवघन है, ज्ञान घन और आनन्द घन है ।
मुक्तात्मा की स्थिति का शब्दों द्वारा वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द की वहाँ गति नहीं है, तर्क वहाँ तक नहीं दौड़ता, कल्पना वहाँ तक नहीं उड़ती और बुद्धि वहाँ तक नहीं पहुँचती। वह दशा गूंगे के गुड़ की तरह अनुभव गम्य है। जैसा कि वेदान्त में ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन नेति नेति कहकर किया है, वैसा ही कुछ मुक्तात्मा का स्वरूप है।
मुक्तात्मा अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त चारित्र, अनन्त सुख, अटल अवगहना वाले, अमूर्त, अगुरुलघु और अनन्तवीर्य वाले हैं । वे ज्योति में ज्योति की तरह एक दूसरे में समाए हुए हैं। पौद्गलिक सुख-दुःखों से अतीत होकर अनन्त आत्मिक अव्याबाध सुखों का निरन्तर अनुभव करते हैं ।
इस प्रकार आत्मा का पर पदार्थों से असम्बद्ध होकर स्वरूप को प्राप्त कर लेना तथा सदाकाल स्वरूप परिणमन करना ही मोक्ष है।
उपर्युक्त विवेचित नव तत्त्वों में जीव और अजीव द्रव्य तत्त्व है, शेष सभी सात पदार्थ पर्याय तत्त्व हैं? पर द्रव्यों और पर्याय तत्त्वों से भिन्न आत्मा परम उपादेय तत्त्व हैं। संवर, निर्जरा और मोक्ष आदि आत्म स्वरूप की प्राप्ति में साधक तत्त्व होने के कारण ही उपादेय कहे गए हैं। संवर, निर्जरा एक देश से शुद्ध होने के कारण एक देश से ही उपादेय है तथा मोक्ष पूर्णतः शुद्ध होने के कारण पूर्ण उपादेय है । निज आत्मा के अतिरिक्त शेष सभी तत्त्व मात्र जानने योग्य ही हैं । मात्र आत्म तत्त्व ही प्राप्त करने योग्य श्रेय तत्त्व हैं।
लोक का स्वरूप : तत्व मीमांसा के अन्तर्गत जैन दर्शन ने मौलिक तत्त्वों के साथ-साथ इस चराचर जगत का भी विवेचन किया है। किसी भी संस्कृति के विकास में उसकी प्राकृतिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों का महत्वपूर्ण स्थान होता है । अतः किसी भी देश के समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थनीति, रहन-सहन, आचार-विचार एवं सुख-समृद्धि का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन भौगोलिक दशाओं को