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406 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
अपूर्व रसघात, 3. गुणश्रेणी, 4. गुण संक्रमण, 5. अपूर्व स्थिति बंध करता है ।
इन पाँच अपूर्व बातों के कारण आत्मा की विशुद्धि बहुत बढ़ जाती है। इस आठवें गुणस्थान से आगे बढ़ने वाली आत्माएँ दो श्रेणियों में विभक्त हो जाती है एक उपशम श्रेणी वाली तथा दूसरी क्षपक श्रेणी वाली । उपशम श्रेणी वाले जीव चारित्र मोह की प्रकृतियों को उपशान्त करते हुए ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचते हैं। लेकिन वहाँ दबाया हुआ मोह पुनः शक्तिशाली हो जाता है और आन्तरिक युद्ध में थके हुए उपशम श्रेणी वाली आत्माओं को नीचे गिरा देता है। यह ग्यारहवाँ गुणस्थान अद्यः पतन का स्थान हैं, क्योंकि उसे पाने वाला आत्मा आगे न बढकर एक बार तो अवश्य गिरता है ।
आठवें गुणस्थान से आगे क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले जीव चारित्रमोह की प्रकृतियों को क्षीण करते हुए नौवे और दसवें गुणस्थान में पहुँचते हैं और वहाँ से सीधे बारहवें गुणस्थान में चले जाते हैं, इस गुणस्थान में मोहकर्म सर्वथा निर्मूल हो जाता है। इसके पश्चात् आत्मा नीचे नहीं गिरता अपितु ऊपर ही चढ़ता है।
उपशम श्रेणी से गिरने वाला जीव चाहे प्रथम गुणस्थान तक ही क्यों न चला जाए, पर उसकी वह गिरी हुई स्थिति कायम नहीं रहती । कभी न कभी वह दुगुने उत्साह से तैयार होकर मोह का सामना करता है और क्षपक श्रेणी की योग्यता प्राप्त कर मोह का सर्वथा क्षय कर देता है
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मोक्ष प्राप्ति में मुख्य रूप से मोह ही बाधक है। मोह का सर्वथा नाश होते ही अन्य ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय रूप घाति कर्म उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे प्रधान सेनापति के मारे जाने पर सैनिक हथियार डाल देते हैं। घातिकर्मों के नष्ट होते ही आत्मा परमात्मभाव का पूर्ण आध्यात्मिक साम्राज्य पाकर निरतिशय केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात चारित्र एवं अनिर्वचनीय सह आनन्द को प्राप्त कर लेता है। जैसे पूर्णिमा की रात्रि में निरभ्रचन्द्र की सम्पूर्ण कलाएँ प्रकाशमान होती हैं, वैसे ही उस समय आत्मा की चेतना आदि समस्त शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं । यह सयोगी केवली नामक तेरहवाँ गुणस्थान है ।
इस गुणस्थान में चिरकाल तक रहने के पश्चात् आत्मा दग्धरज्जु के समान शेष अघातिकर्मों का क्षय करने के लिए सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती शुक्ल ध्यान रूप पवन का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देता है। यही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा रूप चौदहवाँ गुणस्थान है। इसमें आत्मा समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान द्वारा सुमेरु की तरह निष्प्रकम्प स्थिति प्राप्त करके अन्त में शरीर को त्यागकर लोकोत्तर मोक्ष स्थान को प्राप्त कर लेता है। यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थ की अन्तिम सिद्धि है।
इस प्रकार जीव सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप रत्नत्रयी का अवलम्बन लेकर