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तत्त्वमीमांसा 373 होता है, उसी प्रकार काल द्रव्य लोकाकाश में ही होने पर भी सारे आकाश में परिणमन होता है, क्योंकि आकाश अखण्ड एक द्रव्य है ।
काल द्रव्य को पड्द्रव्यों के परिणमन का निमित्त कहा गया है, किन्तु वह स्वयं अपने परिणमन का निमित्त कैसे हो सकता है? इसका उत्तर यह है, कि जैसे आकाश को आकाश का ही आधार है, सूर्य स्व-पर प्रकाशक है, कोई अन्य उसे प्रकाशित नहीं करता, उसी प्रकार काल भी स्व-पर परिणमन में निमित्त है।
धर्म और अधर्म द्रव्य की तरह वह लोकाकाशव्यापी एक द्रव्य नहीं है, क्योंकि प्रत्येक आकाश प्रदेश पर समय भेद इसे अनेक द्रव्य माने बिना नहीं बन सकता। लंका और कुरुक्षेत्र में दिन-रात आदि का पृथक्-पृथक् व्यवहार तत् स्थानों के काल भेद के कारण ही होता है । एक अखण्ड द्रव्य मानने पर काल भेद नहीं हो सकता । यह काल भेद का आधार व्यवहार काल है ।
वैदिक दर्शनों में काल के सम्बन्ध में दो मुख्य पक्ष हैं- न्याय-वैशेषिक दर्शन काल को सर्वव्यापी स्वतंत्र और एक द्रव्य मानते हैं । सांख्य, योग तथा वेदान्त आदि दर्शन काल को सर्वव्यापी, स्वतंत्र द्रव्य न मानकर उसे प्रकृति पुरुष (जड़-चेतन) का ही रूप मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अनुसार काल नामक कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, वह केवल लौकिक दृष्टि वालों की व्यवहार निर्वाह के लिए क्षणानुक्रम के विषय में की हुई कल्पना मात्र है। अब तक विज्ञान भी काल को दिशा की तरह काल्पनिक मानते हैं, वास्तविक नहीं ।
उपर्युक्त विवेचन व आगमों में उल्लिखित तथ्यों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है, कि निश्चयनय की दृष्टि से काल को स्वतन्त्र द्रव्य कहा जाता है। जबकि व्यवहार काल व्यावहारिक उपयोगितानुसार कल्पित है । निश्चय और व्यवहार दृष्टि के समन्वय से तत्व का निर्णय करना चाहिए ।
इस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छः द्रव्य अनादिसिद्ध मौलिक द्रव्य हैं। सबका एक ही सामान्य लक्षण है- उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तता । इस लक्षण का अपवाद कोई भी द्रव्य कभी नहीं हो सकता । द्रव्य चाहे शुद्ध हो या अशुद्ध, वे इस सामान्य लक्षण से हर समय संयुक्त रहते हैं । जैन दर्शन की दृष्टि में ही एकमात्र मौलिक पदार्थ हैं, शेष गुण, कर्म, सामान्य, समवाय आदि उसी द्रव्य की पर्यायें हैं, स्वतंत्र पदार्थ नहीं हैं।
द्रव्य
नव तत्व-विवेचन : विश्व व्यवस्था की दृष्टि से यह विश्व षट्द्रव्य मय है, परन्तु मुमुक्षु को जिस तत्वज्ञान की आवश्यकता मुक्ति के लिए है, वे पदार्थ नौ हैं। जैन दर्शन में आत्मा के वास्तविक स्वरुप को अभिव्यक्त करने तथा उसमें श्रद्धान उत्पन्न करने के उद्देश्य से नव-पदार्थों का विशद् विवेचन किया है। चूँकि समस्त पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होने पर ही जीव आत्म द्रव्य को पर से पूर्णतया भिन्न एवं