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________________ 372 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन भगवती सूत्र (व्याख्या प्रज्ञप्ति) में व्यवहार काल के विषय में निम्न प्रकार से विस्तृत विवरण मिलता है। आकाश के एक प्रदेश में स्थित पुद्गल परमाणु मंद गति से जितनी देर में उस प्रदेश में लगे हुए पास के दूसरे प्रदेश पर पहुँचता है, उसे 'समय' कहते हैं। असंख्यात समयों का समुदाय एक 'आवलिका' कहलाता है। असंख्यात आवलिकाओं का एक 'उच्छवास' और उतनी ही आवलिकाओं का एक निःश्वास होता है। सशक्त और निरोग मनुष्य के एक 'श्वासोच्छवास' को 'प्राण' कहते हैं। इस प्रकार के सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव और 77 लवों का एक मुहूर्त होता है। इस प्रकार एक मुहूर्त में 3773 श्वासोच्छवास होते हैं। 30 मुहूर्तों का एक अहोरात्र ‘रात-दिन', 15 अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयन का एक संवत्सर ‘वर्ष' तथा पाँच संवत्सर का एक युग होता है। औपमिक काल दो प्रकार का होता है- पल्योपम और सागरोपम। पल्योपम : एक योजन (चार कोस) प्रमाण लंबा चौड़ा और गहरा एक पल्य (गड्ढा) लूंस-ठूस कर बालाग्रों (जिसका दूसरा अणु न हो सके, ऐसे बाल) से भरा जाए उस पल्य में से सौ-सौ वर्ष के अन्तर से एक-एक बालाग्र निकाला जाए और इस प्रकार जितने काल में वह पल्य खाली हो जाए उतने को एक पल्योपम कहते हैं। सागरोपम : दस कोटाकोटि (एक करोड़ गुणा एक करोड़) पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। काल के अन्य छह भेद किए गए हैं- 1. सुपमा-सुषमा, 2. सुषमा, 3. सुषमदुषमा, 4. दुषम-सुषमा, 5. दुःषमा, 6. दुःषम-दुषमा। ___चार कोटा कोटि सागरोपम का सुषम सुषम काल है। तीन कोटा कोटि सागरोपम का सुषमा काल है। दो कोटा कोटि सागरोपम का सुपम दुःपमा काल होता है। बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटा कोटि सागरोपम का दुःपमा सुपमा काल होता है। इक्कीस हजार-इक्कीस हजार वर्ष का ही दुषमा, दुःपमा-दुःपमा काला होता है। इन हासोन्मुख छहकालों के समुदाय को अवसर्पिणी कहते हैं। इसी प्रकार दुःपमादुषमा से लेकर सुषम-सुषमा तक का विकासोन्मुख काल उत्पर्पिणी कहलाता है। इस प्रकार दस कोटाकोटि सागरोपम उत्सर्पिणी काल तथा दस कोटा कोटि सागरोपम ही अवसर्पिणी काल होता है। यहाँ एक समस्या उठायी जाती है, कि काल द्रव्य तो लोकाकाश में ही उपस्थित है, फिर आलोकाकाश में परिणमन किस निमित्त से होता है? इस प्रश्न का जैनाचार्यों ने यह उत्तर दिया है, कि जिस प्रकार लटकती हुई लम्बी रस्सी को या कुम्हार के चाक को एक स्थान से हिलाने पर भी सर्वत्र चलन होता है और जिस प्रकार सर्पदंश शरीर के एक ही भाग में होने पर भी संपूर्ण शरीर पर उसका प्रभाव
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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