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तत्त्व मीमांसा* 365
जीव तथा पुद्गलों के गमन में उदासीन अविनाभावी सहाय मात्र है। गति में सहायक तत्व होने से ही धर्मास्तिकाय को गति क्रिया युक्त कहा गया है। यह स्वयं गमन न करते हुए भी गमन में सहायक होता है। जीव कर्म, नोकर्म पुद्गलों के बाह्य निमित्त से सक्रिय है। ये दोनों स्वयं गति करते हैं, धर्मास्तिकाय उसी प्रकार सहाय मात्र है, जैसे जीवों के गमनागमन के लिए पृथ्वी सहायक है। जो भी गति रूप हलन- चलनात्मक प्रवृत्तियाँ हैं, वे सब धर्मास्तिकाय के अस्तित्व में ही संभव हैं।
धर्मास्तिकाय की सिद्धि : जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शनकार ने धर्मास्तिकाय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है। अतएव धर्मास्तिकाय के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए जो प्रमाण दिए गए हैं, वे इस प्रकार हैं
जैन दर्शन ने गतिशील जीव और पुद्गलों की गति को नियमित करने वाले नियामक तत्व के रुप में धर्मास्तिकाय के अस्तित्व को स्वीकार किया है। यदि ऐसे किसी नियामक तत्व को न माना जाय तो इस विश्व का नियत संस्थान घटित नहीं हो सकता। जड़ और चेतन द्रव्य की गतिशीलता अनुभवसिद्ध है।
यदि वे अनन्त आकाश में चले जावें तो इस विश्व का नियत संस्थान कभी सामान्य रूप से एक सा दिखाई नहीं देगा। क्योंकि इकाई रूप में अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव अनन्त आकाश में बेरोकटोक संचार के कारण इस तरह अलग-अलग हो जायेंगे, कि उनका मिलना और नियत सृष्टि के रूप में दिखाई देना असंभव हो जायेगा। इसलिए जैन दर्शन ने जीव और पुद्गलों की सहज गतिशीलता को नियमित करने वाला नियामक तत्त्व धर्मास्तिकाय माना है। इस प्रकार स्थिति मर्यादा के नियामक के रूप में अधर्मास्तिकाय को स्वीकार किया है। धर्म-अधर्म द्रव्यों का यह कार्य आकाश द्रव्य के मानने से सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि आकाश द्रव्य अनन्त
और अखण्ड होने से जड़ तथा चेतन द्रव्यों को अपने में सर्वत्र गति, स्थिति करने से रोक नहीं सकता। इसी प्रकार दृश्यादृश्य विश्व के संस्थान की अनुपपत्ति बनी रहेगी। इसलिए धर्म-अधर्म द्रव्यों को आकाश से भिन्न एवं स्वतंत्र मानना न्याय संगत एवं तर्क सम्मत है। जबकि जड़ और चेतन स्वयं गतिशील है, तब मर्यादित आकाश क्षेत्र में उनकी गति अपने स्वभाववश नहीं मानी जा सकती, उनके लिए किसी नियामक की आवश्यकता है। इसीलिए गति और स्थिति के नियामक के रूप में जैन दर्शन ने क्रमशः धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय के अस्तित्व को माना है।
धर्म द्रव्य और इथर ( Ether ) : जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भारतीय-दर्शन में गतिशल एवं स्थित होने वाले पदार्थों की गति और स्थिति में सहायक धर्म और अधर्म द्रव्य को स्वीकार नहीं किया गया है। लेकिन विज्ञान ने ऐसा ही कुछ स्वीकार किया है।
वैज्ञानिकों ने जब भौतिक पदार्थों का गहराई से अन्वेषण किया, तब वे सोचने