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364 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
सम्बन्ध तथा लाख और लकड़ी का सम्बन्ध प्रयत्न सापेक्ष होने से प्रायोगिक बन्ध है। बिजली, मेघ, इन्द्रधनुष आदि का पौद्गलिक संश्लेष प्रयत्न निरपेक्ष होने से वैश्रसिक बन्ध है। पुद्गल-परमाणुओं में पाये जाने वाले स्वाभाविक स्निग्धता और रुक्षता के कारण ही उनमें परस्पर बंध होता है, जिसके द्वारा स्कन्धों की उत्पत्ति होती है।
स्निग्ध और रुक्ष अवयवों का बन्ध दो प्रकार का होता है - सदृश और विसदृश। स्निग्ध का स्निग्ध के साथ तथा रुक्ष का रुक्ष के साथ बन्ध होना सदृश बन्ध है और स्निग्ध का रुक्ष के साथ संबंध होना विसदृश बन्ध है।
बन्ध के कुछ विशेष नियम और अपवाद हैं। जघन्य अंश वाले स्निग्ध और रुक्ष अवयवों का बन्ध नहीं होता। समान अंश वाले स्निग्ध का स्निग्ध के साथ और रुक्ष का रुक्ष के साथ बंध नहीं होता। दो अंश अधिक वाले आदि अवयवों का ही बन्ध होता है। सदृश-विसदृश बंध में जो अधिकांश होता है, वह ही नाश को अपने रूप में बदल देता है। जैसे- पांच अंश स्निग्धत्व तीन अंश रूक्षत्व को स्निग्धत्व में बदल देता है। रूक्षत्व अधिक हो तो वह स्निग्धत्व को रूक्षत्व में बदल देता है। विसदृश बंध में समांश होने पर कोई भी एक सम दूसरे सम को अपने रूप में परिणत कर लेता है। अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कभी स्निग्धत्व रूक्षत्व को स्निग्धत्व में बदल देता है, कभी रूक्षत्व स्निग्धत्व को रूक्षत्व में बदल देता है। समांश में सदृश बन्ध तो होता ही नहीं, विसदृश बन्ध ही होता है। इस प्रकार से पुद्गल परमाणुओं के बन्ध की प्रक्रिया के फलस्वरुप ही विविध प्रकार के स्कन्धों का निर्माण होता है।
जैन ग्रन्थों में पुद्गल द्रव्यों की जिन-कर्मवर्गणा, नोकर्मवर्गणा, आहार वर्गणा, भाषा वर्गणा आदि रूप से 23 प्रकार की वर्गणाओं का वर्णन मिलता है, वे सभी स्वतन्त्र द्रव्य नहीं हैं। एक ही पुद्गल जातीय स्कन्धों में ये विभिन्न प्रकार के परिणमन, विभिन्न समाग्री के अनुसार विभिन्न परिस्थितियों में बन जाते हैं। संक्षेप में वीतराग अतीन्द्रिय सुख के अनुभव से रहित जीवों की उपभोग्य पंचेन्द्रिय विषय, पाँच इन्द्रियाँ, पाँच शरीर, मन, अष्ट कर्म तथा अन्य भी जो कुछ मूर्त पदार्थ हों वे सभी पुद्गल हैं।
3. धर्मास्तिकायः धर्मास्तिकाय को चेतना शून्य होने के कारण अजीव द्रव्य के अन्तर्गत रखा गया है। धर्मास्तिकाय स्पर्श, गन्ध, रस और वर्ण गुणों से रहित होने के कारण अमूर्त स्वभाव वाला द्रव्य है, इसीलिए अशब्द हैं। समस्त लोकाकाश में व्यात होकर रहने से लोकव्यापी असंख्य प्रदेशी हैं। लोकाकाश से बाहर इसकी सत्ता नहीं है। अयुतसिद्ध प्रदेश के कारण सम्पूर्ण लोकाकाश में धर्मास्तिकाय का अखण्ड अवगाहन है। इसी कारण उसे पंचास्तिकाय में सृष्ट कहा गया है।
धर्मास्तिकाय अगुरु लघु, गुण, अंश रुप से सदैव परिणमित होता है। वह नित्य है, कारणभूत है तथा स्वयं कार्य नहीं है। धर्मास्तिकाय को गति क्रिया युक्त कहा गया है। जिस प्रकार जल मछलियों के गमन में सहायक होता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य