________________
318 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
नयाभास ‘सदैव' ऐसा अवधारण कर अन्य का तिरस्कार करता है। निष्कर्ष यह है, कि सापेक्षता ही नय का प्राण है। इनके द्वारा समस्त वाद-विवाद समाप्त हो जाते हैं। जबकि दुर्नय ही विविध दर्शनों के परस्पर वाद-विवाद का कारण होता है। क्योंकि मनुष्य की ज्ञानवृत्ति समान रूप से अधूरी होती है, फिर भी स्वयं के मत के अंशात्मक ज्ञान को परिपूर्ण मानकर अन्य मतों का सर्वथा निषेध करने की प्रवृत्ति ही विवाद का कारण है। यह नयाभास अथवा दुर्नय है। इसी से सत्य ज्ञान के द्वार बन्द हो जाते हैं। जबकि नयवाद सत्यज्ञान की ओर अग्रसर होने की प्रथम सीढ़ी है। नय के मूल दो भेद :
"स व्याससमासाभ्यां द्रि प्रकार:।164 अर्थात् नय दो प्रकार का है, व्यासनय और समासनय। विस्तार रूप नय व्यासनय कहलाता है और संक्षेपरूप नय समासनय कहलाता है। नय के यदि विस्तार से भेद किए जाएँ, तो वह अनन्त होंगे, क्योंकि वस्तु में अनन्त धर्म हैं। अतः स्वभावतः एक-एक धर्म को ग्रहण करने वाले अभिप्राय भी अनन्त होंगे, भले ही उनके वाचक पृथक्-पृथक् शब्द न मिलें, लेकिन जितने शब्द है, उतने अभिप्राय तो अवश्य ही होते हैं। इसलिए कहा गया है- “जितने प्रकार के वचन हैं या जितने शब्द हैं, उतने ही नय है।' अतएव व्यासनय के भेदों की संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती। समासनय के भेद-प्रभेदों को हम सारिणी द्वारा समझ सकते हैं।
समासनय
द्रव्यार्थिकनय
पर्यायार्थिकनय
नेगम
संग्रह
व्यवहार
समभिरुढ़
एवंभूत
ऋजुसूत्र शब्द ___
ज्ञाननय
र्थनय
शब्दनय
उपर्युक्त सारिणी के द्वारा जैन दर्शन सम्मत नय के समस्त भेद-प्रभेदों का वर्गीकरण हो जाता है। वस्तुतः नय भेदों की संख्या के लिए एक परम्परा नहीं है। सामान्यतया सात भेदों के प्रतिपादन की बाहुल्यता है। यथा- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ, एवंभूत। यह अम्नाय श्वेताम्बरीय, दिगम्बरीय ग्रन्थों में प्रख्यात रूप से प्रचलित है, परन्तु कहीं-कहीं छः, पाँच, चार, दो आदि भेदों की व्याख्या भी मिलती है। सिद्धसेन दिवाकर की प्ररुपणा नैगमनय को छोड़कर शेष छ: नयों की है और उमास्वाति पाँच नय का प्रतिपादन करते हैं -
"नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दानयाः।"