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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 309
जैन दार्शनिकों ने अन्यथानुपपति या अविनाभाव को हेतु का प्राण माना है। सपक्ष सत्व इसलिए आवश्यक नहीं है, कि सपक्ष में रहने या न रहने से हेतुता में कोई अन्तर नहीं आता। केवल व्यतिरेकी हेतु सपक्ष में नहीं रहता फिर भी सम्यग्हेतु है। पक्ष धर्मत्व भी आवश्यक नहीं है, क्योंकि अनेक हेतु ऐसे हैं, जो पक्ष में नहीं पाये जाते हैं। जैसे रोहिणी नक्षत्र मुहूर्त के बाद उदित होगा, क्योंकि अभी कृतिका का उदय है। यहाँ कृतिका का उदय रूप हेतु रोहिणी रूप पक्ष में नहीं रहता तदपि अविनाभावी होने से सम्यग् हेतु है। अतः केवल विपक्ष व्यावृत्ति ही हेतु की आत्मा है। इसके अभाव में वह हेतु ही नहीं रह सकता। जिसका अविनाभाव निश्चित है, उसके साध्य में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधा नहीं आ सकती और उसका तुल्य बलशाली प्रतिपक्षी हेतु सम्भव ही नहीं है। अन्यथानुपपत्ति के अभाव में पाँच लक्षण और त्रिलक्षण के होने पर हेतु सम्यग्हेतु नहीं होता। जैसे- गर्भस्थ मैत्र तनय काला होगा, क्योंकि वह क्षेत्र तनय है, उसके अन्य पुत्रों की तरह। यहाँ विलक्षणादि पाये जाते हैं, परन्तु अन्यथानुपपत्ति न होने के कारण वह हेतु सही नहीं होता। जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ त्रिलक्षण और पाँच लक्षण होने के कारण वह हेतु सही नहीं होता। जहाँ अन्यथानुपपत्ति है, वहाँ त्रिलक्षण और पाँच लक्षण न होने पर भी हेतु सही होता है। अतएव कहा गया है - ___ जहाँ अन्यथानुपपत्ति है, वहाँ त्रिलक्षणादि मानने से क्या लाभ? और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ भी त्रैरुप्य मानने से क्या लाभ? अतः अन्यथानुपपन्नत्व ही हेतु का एकमात्र लक्षण है। हेतुओं के प्रकार और उनके भेद-प्रभेद का बहुत विस्तार
अनुमान को प्रमाण के रूप में चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त अन्य सभी दर्शनों में स्वीकार किया है। चार्वाक प्रत्यक्षवादी ही है। अतः वह अनुमान को प्रमाण नहीं मानता। परन्तु उसे अपनी बात को सिद्ध करने के लिए अनुमान का सहारा लेना ही पड़ता है। यदि वह ऐसा न करे, तो उसका पक्ष सिद्ध नहीं हो पाता। या तो उसे मौन रहना पड़ेगा या अनुमान का आश्रय लेना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प नहीं है। इस प्रकार अनुमान की प्रमाणता को स्वीकार करना अनिवार्य है।
3. औपम्य प्रमाण : सदृशता के आधार पर वस्तु को ग्रहण करना उपमान है। अनुयोगद्वार सूत्र में औपम्य प्रमाण को दो प्रकार का कहा गया है - साधोपनीत और वैधोपनीत। "ओवम्मे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-साहम्मोवणीते य वेहम्मोवणीतेय।"57
1. साधोपनीत : समान गुण धर्म के आधार पर तुल्य पदार्थों की उपमा दी जाती है, उसे साधोपनीत कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है - 1. किञ्चितसाधोपनीत, 2. प्रायः साधोपनीत और 3. सर्व साधोपनीत।