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274* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
पदार्थ नष्ट नहीं होता, यह प्रमाण सिद्ध है। उसका रुपान्तर होता है, यह प्रत्यक्ष सिद्ध है।
विपरीत ज्ञान के सम्बन्ध में विभिन्न दर्शनों में विभिन्न धारणाएँ हैं- सांख्य, योग और मीमांसक (प्रभाकर) इसे विवेकाख्याति या अख्याति , वेदान्त अनिर्वचनीय ख्याति", बौद्ध (योगाचार) आत्मख्याति नैयायिक वैशेषिक विपरीत ख्याति या अन्यथा ख्याति और चार्वाक अख्याति या निरावलम्बन कहते हैं।
जैन दृष्टि के अनुसार यह ‘सत्-असत् ख्याति' है। रस्सी में प्रतीत होने वाला साँप स्वरूपतः सत् और रस्सी के रुप में असत् है। ज्ञान के साधनों की विकल दशा में सत् का असत् के रुप में ग्रहण होता है, यह ‘सद्सत् ख्याति' है।
___2. संशय : ज्ञेय वस्तु की दूरी, अंधेरा, प्रमाद, व्यामोह आदि जो विपर्यय के कारण बनते हैं, वे ही संशय के कारण हैं। दोनों के हेतु समान होते हुए भी दोनों के स्वरुप में बहुत अन्तर है। विपर्यय में जहाँ सत् में असत् का निर्णय होता है, वहाँ संशय में सत् या असत् किसी का भी निर्णय नहीं होता। आचार्य हेमचन्द्र संशय की परिभाषा इस प्रकार लिखते हैं
"अनुभयत्रोभय कोटिस्पर्शी प्रत्ययः संशयः। 70 साधक एवं बाधक दोनों प्रमाणों के अभाव से, अनिश्चित अनेक अंशों को छूने वाला ज्ञान संशय कहलाता है। संशय ज्ञान की एक चलायमान अवस्था है। वह 'यह या वह' के घेरे को तोड़ नहीं सकता। उसके सारे विकल्प अनिर्णायक होते हैं। एक सफेद चार पैर और सींग वाले प्राणी के दूर से देखते ही मन में विकल्प आता हैयह गाय है अथवा गवय?
निर्णायक विकल्प संशय नहीं होता, यह हमें याद रखना होगा। पदार्थ के बारे में जैन दर्शन दो विकल्प रखता है-‘पदार्थ नित्य भी है और अनित्य भी।' यह संशय नहीं है। संशय या अनिर्णायक विकल्प वह होता है, जहाँ पदार्थ के एक धर्म के बारे में दो विकल्प होते हैं। अनेक धर्मात्मक वस्तु के अनेक धर्मों पर होने वाले अनेक विकल्प इसलिए निर्णायक होते हैं, कि उनकी कल्पना आधारशून्य नहीं होती। स्याद्वाद के प्रामाणिक विकल्प (भंग) संशयवाद नहीं है। 3. अनध्यवसाय :
"किमित्या लोचन मात्र मनध्यवसायः।” अनध्यवसाय आलोचन मात्र होता है। अरे क्या है? इस प्रकार का अत्यंत सामान्य ज्ञान होना अनध्यवसाय है। जैसे मार्ग में चलते-चलते किसी तिनके का स्पर्श हुआ। स्पर्श हुआ यह जान लिया, किंतु किस वस्तु का हुआ यह नहीं जान पाए। इस ज्ञान की आलोचन में ही परिसमाप्ति हो जाती है, कोई निर्णय नहीं निकलता। इसमें वस्तु के स्वरुप का अन्यथा ग्रहण नहीं है, इसलिए यह विपर्यय नहीं है। यह विशेष