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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 273
प्रामाण्यवाद के सन्दर्भ में विभिन्न दार्शनिकों में मतभेद पाये जाते हैं। मीमांसक प्रमाण्य की उत्पत्ति ज्ञप्ति स्वतः और अप्रामाण्य की परतः मानते हैं। न्यायदर्शन में प्रामाण्य-अप्रामाण्य दोनों को परतः ही माना गया है। सांख्य दर्शन में प्रामाण्यअप्रामाण्य दोनों स्वतः ही माने गये हैं।
बौद्ध दर्शन में प्रामाण्य-अप्रामाण्य दोनों को अवस्था विशेष में स्वतः और अवस्था विशेष में परतः माना गया है। इस प्रकार इस विषय को लेकर दार्शनिकों में विचार भेद चला आ रहा है।
अयथार्थ ज्ञान या समारोप : ज्ञान सत्य व प्रामाणिक हो तो प्रमाण अथवा यथार्थ ज्ञान कहा जाता है। इसके विपरीत जो ज्ञान प्रामाणकि नहीं होता, उसे अयथार्थ ज्ञान कहते हैं। वादिदेव सूरि ने अप्रामाणिक ज्ञान को समारोप कहा है
“अतस्मिंस्तदध्यवसायः समारोपः।
स विपर्यय संशयानध्यवसाय भेदात् त्रैधा॥4 अर्थात् अतद्प वस्तु का तद्रूप ज्ञान हो जाना या जो वस्तु जैसी नहीं है, वैसी जानना समारोप कहलाता है। समारोप में वस्तु का सम्यक् निर्णय नहीं होता है, इसीलिए वह अयथार्थ ज्ञान है। यह तीन प्रकार का होता है- 1. विपर्यय, 2. संशय, 3. अनध्यवसाय।
यह उसी प्रकार है, जैसे एक रस्सी के सम्बन्ध में चार व्यक्तियों के ज्ञान के चार रुप हैं
1. यह रस्सी है। - यथार्थ ज्ञान। 2. यह साँप है। - विपर्यय ज्ञान। 3. यह रस्सी है या साँप है? - संशय। 4. रस्सी को देखकर भी अन्यमनस्कता के कारण ग्रहण नहीं करता है
अनध्यवसाय। 1. विपर्यय
___ "विरीतैक कोटि निष्टन विपर्यय:165 अर्थात् एक विपरीतं धर्म का निश्चय होना विपर्यय-ज्ञान कहलाता है। जैसे रस्सी के स्थान पर साँप का ज्ञान होना। विपर्यय निश्चयात्मक ज्ञान होता है, किंतु यह निश्चय ज्ञेय पदार्थ के वास्तविक स्वरुप के स्थान पर किसी अन्य रुप का होता है। जितनी निरपेक्ष एकान्त दृष्टियाँ होती हैं, वे सब विपर्यय की कोटि में आती हैं। पदार्थ अपनी गुणात्मक सत्ता की दृष्टि से नित्य हैं और अवस्थाभेद की दृष्टि से अनित्य इसलिए उसका समष्टिरुप बनता है- पदार्थ नित्य भी है और अनित्य भी। यह सम्यक ज्ञान है। इसके विपरीत पदार्थ को एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य मानना विपर्यय ज्ञान है, सम्यकज्ञान नहीं।