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240 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
अभिहित होते हैं। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। वस्तु के उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म का बोधक अभिप्राय या ज्ञान नय कहलाता है।
प्रमाण वस्तु के अनेक धर्मों का ग्राहक होता है और नय एक धर्म का। किन्तु एक धर्म को ग्रहण करता हुआ भी नय दूसरे धर्मों का न निषेध करता है और न विधान ही करता है। निषेध करने पर वह दुर्नय हो जाता है। विधान करने पर प्रमाण की कोटि में परिगणित हो जाता है। नय प्रमाण और अप्रमाण दोनों से भिन्न प्रमाण का एक अंश है, जैसे समुद्र का अंश न समुद्र है, न असमुद्र है, वरन् समुद्रांश है । नय का ग्राह्य भी वस्त्वंश ही होता है। विश्व के सभी एकान्तवादी दर्शन एक ही नय को अपने विचार का आधार बनाते हैं। उनका दृष्टिकोण एकांगी होता है, वे भूल जाते हैं, कि दूसरे दृष्टिकोण से विरोधी प्रतीत होने वाले विचार भी संगत हो सकते हैं। इसी कारण वे एकांगी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं और वस्तु के समग्र स्वरूप को स्पर्श नहीं कर पाते। वे सम्पूर्ण सत्य के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। नयवाद अनेक दृष्टिकोणों से वस्तु को जानने की कला सिखलाता है। ___बौद्ध दर्शन वस्तु के अनित्यत्व धर्म को स्वीकार करके द्रव्य की अपेक्षा पाये जाने वाले नित्यत्व धर्म का निषेध करता है। सांख्य दर्शन नित्यत्व को अंगीकार करके पर्याय की दृष्टि से विद्यमान अनित्यत्व धर्म का अपलाप करता है। इस प्रकार ये दोनों दर्शन अपने-अपने एकान्त पक्ष के प्रति आग्रहशील होकर एक-दूसरे को मिथ्यात्वी कहने के कारण वे स्वयं मिथ्यावादी बन जाते हैं। यदि वे दूसरों को सच्चा मानते तो वे स्वयं भी सच्चे हो जाते, क्योंकि वस्तु में द्रव्यतः नित्यत्व और पर्यायतः अनित्यत्व धर्म रहता है।
इस प्रकार नयवाद द्वैत-अद्वैत, निश्चय-व्यवहार, ज्ञान-क्रिया, काल-स्वभावनियति यदृच्छा-पुरुषार्थ आदि वादों का सुन्दर और समीचीन समन्वय करता है।
नयवाद दुराग्रह को दूर करके दृष्टि को विशालता और हृदय को उदारता प्रदान करता है। वह वस्तु के विविध रूपों का विश्लेषण हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है - 'हे जिनेन्द्र! जिस प्रकार विविध रसों द्वारा सुसंस्कृत लोह स्वर्ण आदि धातु पौष्टिकता और स्वास्थ्य आदि अभीष्ट फल प्रदान करती हैं, उसी प्रकार ‘स्यात्' पद से अंकित आपके नय मनोवांछित फल के प्रदाता हैं, अतएव हितैषी आर्य पुरुष आपको नमस्कार करते हैं।'
प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद-व्यय ध्रौव्य की प्रक्रिया निरन्तर चालू है। स्वर्णपिण्ड से एक कलाकार घट बनाता है। फिर उस स्वर्णघट को तोड़कर मुकुट बनाता है। यहाँ प्रथम पिण्ड के विनाश से घट की औ. घट के विनाश से मुकुट की उत्पत्ति होती है, मगर स्वर्ण द्रव्य सब अवस्थाओं में विद्यमान रहता है। यह द्रव्य से नित्यता और पर्याय से अनित्यता है। इस उदाहरण से वस्तु की सामान्य विशेषात्मकता भी प्रमाणित हो