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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 237 181 यदि ऐसा न माना जाए तो उस घट के स्वरूप हानि का प्रसंग उत्पन्न होता है। इसलिए कहा जाता है, कि 'सर्व अस्ति रूपेण पर रूपेण नास्ति च।' प्रत्येक पदार्थ स्वरूप से ही अस्तीत्व वाला है, पररूप से नास्तित्व भाव वाला है। स्याद् अस्ति का तात्पर्य है, कि घट किसी एक अपेक्षा (स्वचतुष्टय) से ही सत् है, सभी अपेक्षाओं से नहीं। 2. स्याद नास्ति : परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व नहीं है। 'जैसे स्याद् नास्ति घटः।' इसका तात्पर्य है, कि घट का नास्तित्व घट भिन्न यावत पर पदार्थों के द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से है, क्योंकि घट में तथा पर पदार्थों में भेद की प्रतीति प्रमाण सिद्ध है। प्रथम भंग में स्वरूप से सत्ता का प्रतिपादन है, जबकि इस भंग में पर रूप से नास्तित्व का कथन है। पदार्थ में पट द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से यदि नास्तित्व न माना तो वह पट रूप से भी सत् हो जाएगा। क्योंकि जिस वस्तु में जिसका नास्तित्व नहीं होता वह वस्तु तद्प हो जाती है। इस न्याय से एक ही वस्तु सर्वरूप बनने की अनिष्टापत्ति प्राप्त होगी। अतः प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व के साथ नास्तित्व भी रहा हआ है। विद्यानंदी के अनुसार'सत्ता का निषेध, स्वभिन्न अनन्त पर की अपेक्षा से है। यदि पर की अपेक्षा के समान स्व की अपेक्षा से भी अस्तित्व का निषेध माना जाये तो घट निःस्वरूप हो जाएगा। यदि निःस्वरूपता को स्वीकार करें तो सर्व शून्यता का दोष आ जाएगा। अतः द्वितीय भंग पर रूप से ही पदार्थ के नास्तित्व को बताता है।' 3. स्याद् अवक्तव्य : जब वस्तु के अस्ति नास्ति दानों स्वरूप युगपत् विकसित होते हैं, तो कोई ऐसा शब्द नहीं है, जो दोनों को मुख्य भाव से एक साथ कह सके। अतः वस्तु को अवक्तव्य कह दिया जाता है। जैसे 'स्याद् अवक्तव्य घटः।' इसका तात्पर्य है, कि शब्द की शक्ति सीमित है। घट की वक्तव्यता युगपत् में नहीं क्रम में ही सम्भव है। अस्तित्व नास्तिकत्व का युगपत् वाचक कोई भी शब्द नहीं है, इसलिए विधि निषेध का युगपत्व अवक्तव्य है। किन्तु यह ध्यान रखना चाहिये, कि वह अवक्तव्य सर्वदा सर्वतोभावेन नहीं है। यदि इस प्रकार माना जाएगा तो एकान्त अवक्तव्य का दोष पैदा होगा, जो मिथ्या होने से मान्य नहीं है। ऐसी स्थिति में हम घट को घट शब्द से या किसी अन्य शब्द से यहाँ तक कि अवक्तव्य शब्द से भी नहीं कह सकेंगे। वस्तु का शब्द द्वारा प्रतिपादन करना असंभव हो जाएगा और वाच्य वाचक भाव की कल्पना को कोई स्थान ही न रहेगा, इसलिए स्यात् अवक्तव्य भंग सूचित करता है, कि विधि निषेध का युगपत्व अस्ति या नास्ति शब्द से अवक्तव्य है, किन्तु वह अवक्तव्यता सर्वथा नहीं है, अवक्तव्य शब्द से तो वह युगपत्व वक्तव्य ही है। आगे के चार भंग संयोगज हैं और वे इन तीन भंगों की क्रमिक विवक्षा पर सामूहिक दृष्टि रहने पर बनते हैं। 4. स्याद् अस्ति-नास्ति : स्वकीय और परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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