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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता 107
मन्दिर के पीछे वाले पर्वत पर तपस्या की थी। वहाँ उनके चरण विद्यमान हैं ।
बद्रीनाथ मन्दिर की मूर्ति भगवान ऋषभदेव की है। इससे इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है, कि चक्रवती भरत ने जिन 72 जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया था, वे कैलाश में नहीं वरन् संपूर्ण हिमालय में विभिन्न स्थलों पर करवाया था। संभवतया कालक्रम में विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों के परिवर्तन के साथ-साथ भगवान ऋषभदेव जी की मूर्तियाँ शैव पूजा में परिवर्तित हो गयी हों, जैसा कि बद्रीनाथ में हुआ है । इस शोधपूर्ण विषय के शोध के पश्चात् जैन धर्म की प्राचीनता के ये अनेक स्मारक हमारे समक्ष विद्यमान होंगे।
पर्वतीय स्मारकों के अतिरिक्त सभी तीर्थंकरों की जन्मभूमि को भी कल्याण भूमि के रूप में जैन लोग तीर्थ मानते हैं । उन सभी स्थलों पर प्राचीन मन्दिर स्मारक बने हुए हैं। अयोध्या, सावत्थी ( श्रावस्ती), कौशांबी, बनारस, चन्द्रपुरी, काकंदी, भदलपुर, सिंहपुर, कंपिलपुर, रत्नपुर, गजपुर, मिथिला, राजगृह, मथुरा, शौरीपुर और क्षत्रिय कुण्ड आदि नगर तीर्थंकरों की कल्याणक भूमि हैं । दूर-दूर से जैन आज भी वहाँ मन्दिरों के दर्शन करने जाते हैं।
5. मूर्तियाँ एवं चित्रकला : पुरातात्विक साक्ष्य में अन्तिम महत्त्वपूर्ण निधि मूर्तियाँ एवं चित्रकला के नमूने हैं । यत्र-तत्र मन्दिरों के ध्वंसावशेषों के बिखरे हुए चिह्न आयागपट भूगर्भ में दबी अखण्ड और खण्डित मूर्तियाँ भी जैन धर्म की प्राचीनता के पुष्ट प्रमाण हैं । (परिशिष्ट 6 )
मथुरा के कंकाली टीले से ऐसे अनेक चिह्न प्राप्त हुए हैं
1. आयाग पट्ट : यह एक पत्थर का चौरस टुकड़ा है इसके बीच में एक जिन मूर्ति है। उसके चारों ओर बहुत सुन्दर नक्काशी का काम है। तीर्थंकरों के सम्मानार्थ ऐसे पट्ट बनवाकर मन्दिरों में लगाते थे । इस पट्ट के नीचे प्राचीन लिपि में एक शिलालेख भी खुदा हुआ है। उस पर लिखा है
“नमोअरहंताणं सिंहकस्स वणिकस्स (पुत्तेन ) कोसिकी पुत्तेणसिंहनादिकेन आयागपटो थापितो अरिहंत पूजाय । "
यह लेख प्राकृत भाषा में है। इसका भाव यह है, कि सिंहक नामक वणिक की कौशकी नामक भार्या का पुत्र सिंहनादक, उसने अरिहंतों की पूजा के लिए इस पट्ट को स्थापित किया है। इसका समय वि०सं० से दो सौ वर्ष से भी अधिक का बताया गया है । (परिशिष्ट 4 )
2. लाल पत्थर का छत्ता : यह सब ओर से अखंडित है । इसमें पत्थर पर जो काम है, उसे देखकर प्राचीनकाल की विकसित शिल्पकला का ज्ञान होता है। अनुमान है कि यह किसी मूर्ति के ऊपर लगा हुआ होगा। यह भी बहुत प्राचीन है ।
3. दरवाजा का बाजू : मथुरा से पश्चिम 7 मील पर मोरी ग्राम के खंडहरों में