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106 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
भारत के ऊँचे पर्वत शिखरों पर निर्मित वे स्मारक हैं, जहाँ स्वयं तीर्थंकर विराजित हुए थे। अर्थात् प्रागैतिहासिक काल से अद्यावधि तक वे विद्यमान हैं और जैनागमों के अनुसार वे प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होंगे। शत्रुजय तीर्थ इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की तपोभूमि था। गिरनार बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान की तपोभूमि एवं निर्वाण स्थल था, जिनके स्मारक वहाँ आज भी विद्यमान हैं। जिनके सम्बन्ध में फरग्यूसन कहते हैं, कि 'समुद्र सतह से 3000 से 4000 फुट ऊँचे शत्रुजय और गिरनार पर्वतों के शिखरों पर मन्दिरों के भव्य नगर सुशोभित हो रहे हैं। इस प्रकार मन्दिर नगर बनवाने की विशिष्टता का अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनों ने ही विशेष रूप से अमल किया।
प्रो. इलियट का कथन है कि "शत्रंजय के शिखर पर विशेषतया प्रत्येक दिशा में सुवर्णमय और रंग-बिरंगी नक्शीदार मन्दिर खुले और मूक खड़े हैं। उनमें चमकते प्रदीपों के बीच में भव्य और शांत तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं। इन प्रशांत मुद्राओं के समूह वाले मन्दिरों की श्रेणियाँ और गगन चुम्बी गढ़ों में के देव-देवी यह सूचना करते मालूम पड़ते हैं, कि ये सब स्मारक मानवी प्रयत्न से नहीं अपितु किसी दैवीय प्रेरणा से ही निर्मित हुए हैं।
सम्मदेशिखर भी एक ऐसा ही अद्वितीय, पर्वतीय जैन स्मारक हैं, जहाँ बीस तीर्थंकरों का निर्वाण हुआ था। द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ जी के समय से वह पर्वतराज जैन स्मारक बना हुआ है। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के निर्वाण के पश्चात् से इसका नाम पार्श्वनाथ तीर्थ भी प्रचलित हो गया। यह अति पवित्र स्थल है, यहाँ से 20 तीर्थंकरों के अतिरिक्त लाखों मुनियों ने केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया। इस अति विशाल प्राचीनतम जैन स्मारक की विद्यमानता के पश्चात् तो जैन दर्शन की प्राचीनता में कोई संशय ही नहीं रह जाता। जैन धर्म की प्राचीनता के प्रमाण मांगने वाले दार्शनिकों एवं इतिहासविदों का ध्यान इन अविचल स्मारकों की ओर गया ही नहीं, यह आश्चर्य जनक हैं।
इसके पश्चात् पावापुरी जहाँ भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था, वह भी एक महत्त्वपूर्ण जैन स्मारक है। इससे भी प्राचीन स्मारक मुण्डस्थल में है। यहाँ भगवान महावीर की दीक्षा के पश्चात् उनके जीवनकाल में ही उनके बड़े भाई राजा नन्दीवर्धन ने भगवान महावीर का मन्दिर बनवाया था। यद्यपि वह मन्दिर उसी रूप में न रहा, लेकिन उसके खण्डहर तथा शिलालेख आज भी अपनी प्राचीनता की गवाही दे रहे
जैन मान्यता के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान का निर्वाण स्थल हिमालय (कैलाश पर्वत) है। हिमालय में स्थित तीर्थों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने से इस मत का समर्थन होता है। भगवान ऋषभदेव के पिता नाभिराय ने बद्रीनाथ