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दिगम्बर - तीर्थकर भगवान् समवसरण में सिंहासन पर बैठते
नहीं हैं अधर रहते हैं ।
(त्रि. प्र. पर्व ४ गा० ८९३)
जैन - सिंहासनस्थ मिह भव्य शिखण्डिनस्त्वाम् ||२३||
( आ० सिद्धसेनसूरि कृत कल्याणमंदिरस्तोत्र ) इस पाठसे तीर्थकरों का सिंहासन पर बैठना सिद्ध है ।
दिगम्बर - आ० यतिवृषभ फरमाते हैं कि केवली तीर्थंकरका शरीर केवलज्ञान प्राप्त होने पर पृथ्वीसे पांच हजार धनुष ऊपर चला जाता है, माने वे ५००० धनुष ऊंचे विहार करते हैं ।
( त्रि. प्र. पर्व ४ गा० ७०
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० श्रुतसागरजी बताते हैं कि तीर्थकर भगवान् एकेक योजन ऊंचे और आधे२ योजन की केसरा वाले कमल पर विहार करते हैं और ये कमल भी कम नहीं हैं । पं० लालाराम शास्त्रीके लेखानुसार ये १५ या आठों दिशा आदिके हिसाब से २२५ होते हैं। तब तो तीर्थंकर का आकाशगमन मानना ठीक है । इससे यह आराम रहता है कि तीर्थकरो को समवसरण की पैरी चढने का कष्ट नहीं होगा तीर्थकर भगवान सीधे समवसरणके सिंहासन पर आकर बैठ जावेंगे ।
जैन- ये सब अतिशयोक्ति ही हैं। योजनकी ऊंचाईवाले कमल, कमलोकी संख्याका मतभेद, उंचाई को भी फर्क और उनको फिरनेका क्षेत्र, इन सब वातांको सोचने पर यहाँ अतिशयोक्ति मानना यह ठीक मार्ग है । इस अतिशयोक्ति की जड़ संभवतः "जातविकोशाम्बुजमृदुहासा " है, विकोश के स्थान पर "विक्रोश" माने विशिष्ट कोश समजकर अपनी बुद्धिसे योजनकी कल्पना कर ली है मगर सब दिगम्बर शास्त्र उसके पक्ष में नहीं हैं । तीर्थकर भगवान विहार करें वैसे सीडी भी चढ़ें, इसमें विशेषता क्या है ? वीर्यान्तराय कर्मके क्षय होने से चलने में चढनेमें या बोलने में तीर्थकर भगवान् कहीं थकते नहीं है और न कष्ट होता है अतः चढनेके कष्टका