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________________ (8) "जैन गजट''-सोलापुरके तंत्री पं०वंशीधरजी लिखते हैं"किंचिदूनका मतलब २/३ क्यों न समझा जाय ?" + + "उपांगादि ३० प्रकृतियों का सयोग केवलीके अन्त्य समय में नाश हो जाता है। तब अन्त में नासिका आदि अनेक उपांगों के छिद्र थे नहीं रह सकते" (जैन गजट व० ३७ अं० २ और च० पृ० ७९) इन प्रमाणों से निर्विवाद स्पष्ट है कि-सिद्ध भगवान् की अवगाहना त्यक्त अंतिम शरीर के २/३ हिस्से में रह जाती है। दिगम्बर-केवली भगवान ४ कर्मयुक्त हैं औदारिक शरीरवाले हैं ११ परिषह उपसर्ग सहते हैं आहार लेते हैं पानी पीते हैं रोगी होते हैं निहार करते हैं सातों धातु युक्त है देहप्रवृत्ति करते है साक्षरी भाषा बोलते हैं इत्यादि २। यदि यह बातें दिगम्बर शास्त्रों से सिद्ध हैं तो फिर दिगम्बर विद्वान् इनकी मना क्यों करते हैं ? जैन-दिगम्बर विद्वान् दिगम्बरत्व की रक्षाके लिये इन बातों की मना करते हैं। वे एकान्त नग्नत्व में जोर देते हैं और उसी के कारण वस्त्र, पात्र, गोचरी विधि, आहार लाना इत्यादि की मना करते हैं। ठीक उसी सिलसिले में क्रमशः केवली के लिये आहार लाना आहार करना औदारिक शरीर सातधातु रोग परिषह उपसर्ग निहार अग्निसंस्कार देहप्रवृत्ति १८ दूषण वाक प्रवृत्ति साक्षरी भाषा और द्रव्यमन वगैरह की मना करते हैं । माने-यह सारी बात दिगम्बरत्व के कारण खड़ी की गई है दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि दिगम्बर विद्वानों ने जगकर्ता ईश्वर अपेक्षा तीर्थकर का जीवन कुछ विशेषता युक्त है ऐसा बतलाने के लिये आहार, रोग, निहार, अग्निसंस्कार, साक्षरी वाणी इत्यादि का निषेध करदिया होगा। और उस अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन को ही वास्तविक रूप स शास्त्रों में दाखिल करदिया होगा। कुछ भी हो, उन कल्पनाओं को दिगम्बर शास्त्रों का आधार नहीं हैं।
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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