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लेने के बाद उदयमें नहीं आता है, मुनिको अयश दुर्भग अनादेयका उदय नहीं होता है वैसे नीच गोत्रका भी उदय होता नहीं है; उच्च गोत्रका उदय होता है। केवली भगवानको उच्च गोत्र उद्यमें होता है। . ४ वेदनीय कर्म-जहां तक आयु है-शरीर है वहां तक वेदनीय तो है ही। केवली भगवान को शाता और अशाता ये दोनों प्रकृति उदयमें आती हैं । यद्यपि ये अघातिये कर्म हैं पर वे अपना काम अवश्य करते हैं। केवलो भगवान अनन्त वीर्यवाले हैं, किन्तु उदयमें आई हुई किसी भी प्रकृतिको रोक नहीं सकते हैं। आयुष्य को कम नहीं कर सकते हैं। नामकर्म को हटा नहीं सकते हैं और वेदनीय को दाब नहीं सकते हैं । केवली भगवान को उदय में आई हुई प्रकृति का संक्रमण भी नहीं होता है । देखिए दिगम्बरीय गोम्मटसार कर्मकांड में स्पष्ट है कि
बंधुक्कट्टकरणं संकममोकटुंदीरणा सत्तं । उदयुवसाम णिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी॥
बंध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्ता, उदय, उपशान्त, निधत्त और निकाचना, ये दश करण (अवस्था) हर एक प्रकृति के होते हैं ॥४३७॥ आठवें "अपूर्वकरण गुणस्थान" तक ये दश करण रहते हैं।४४१॥
आदिम सत्तेव तदो, सुहुमकसानोत्ति, संकमेण विणा। छच्च सजोगिति तदो, सत्तं उदयं अजोगिति ॥४४२॥
(१०) सूक्ष्म संपराय गुणस्थान तक शुरूके ७ करण, (१३) सजोगि गुणस्थान तक संक्रमण विना के ६ करण, और (१४) अजोगी गुणस्थान में उदय और सत्ता ये २ करण ही रहते है ॥४४२॥
माने केवली भगवान् को संक्रमण, उपशान्त, निधत्त और निकाचना नहीं होते हैं, उदयमें आई हुई प्रकृति अपना फल देती है। __सत्तागत कर्मप्रकृति कुछ काम नहीं करती है, उदय में आई हुई प्रकृति अपना काम अवश्य करती हैं। इस प्रकार केवली भगवान को ४ कर्म की ४२ प्रकृतिओं का उदय होता हैं।
जैन-केवली भगवानको “४२ कर्म प्रकृति" उदय में रहती हैं अतः केपली भगवान का बर्तन भी तदपेक्ष ही होगा।