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(१३) १ शातावेदनीय या अशातावेदनीय, २ वज्रऋषभ नाराच संघयण, ३ निर्माण, ४-५ स्थिर-अस्थिर, ६-७ शुभ, अशुभ, ८-९ सुस्वर, दुस्वर, १०-११ शुभ विहायोगति, कुविहायोगति, १२-१३ औदारिकयुग्म, १४-१५ तेजस,कार्मण, १६-२१संस्थानषदक, २२-२५ रूप, रस, गंध, स्पर्श, २६-२९ अगुरु लघु, उपघात, पराघात उश्वास, ३० प्रत्येक शरीर ।
(१४) ३१ शाता या अशातावेदनीय, ३२ मनुष्यगति, ३३ पंचे. न्द्रिय जाति, ३४ सुभग, ३५-३७ त्रस, बादर, पर्याप्त, ३८ आदेय, ३९ यशःकीर्ति, ४० तीर्थकर नाम, ४१ मनुष्यायु, ४२ उच्च गोत्र । इनमेंसे ३० प्रकृतिका उदय विच्छेद होनेपर "अयोगी गुणस्थान"
और शेष १२ प्रकृति का उदय विच्छेद होने पर "सिद्ध पद" प्राप्त होता है।
(गोम्म० कर्म• गा० २७१, २७२) वास्तवमें यह निश्चित है कि केवली भगवान को तेरहवें गुणस्थानमें १२० बंध प्रकृतिओंमें से १ शाता वेदनीयका बंध (गोम्म० क० गा० १०२), १२२ उदय प्रकृतिओंमें से ४२ प्रकृतिओं का उदय (गा० २७१, २७२), १२२ उदीरणा प्रकृतिओं में से शाता, अशाता और मनुष्यायु सिवाय की उदय योग्य ३९ प्रकृतिओंकी उदीरणा (गा० २७९ से २८१) और १४८ सत्ता प्रकृतिओं में से ८५ प्रकृतिआकी सत्ता (गा० ३४०, ३४१ कवि पुष्पदंतकृत 'अपभ्रंश महापुराण' संधि ९ गा०...) होती हैं।
केवली भगवानको ४ कर्म उदयमें रहते हैं
१ आयुकर्म-केवली भगवानको मनुष्यायु उदयमें है, केवलज्ञान होने के बाद कोई केवली भगवान तो क्रोडों वर्षों से भी अधिक आठ वर्ष न्यून क्रोड पूर्व तक जिन्दे रहते हैं। उनका आयु अनपवर्तनीय होता है। ___२ नामकर्म-आयुष्य है वहां तक शरीरस्थिति अनिवार्य है। इसीसे केवली भगवानको मनुष्य गति, औदारिक शरीर, संघयण, निर्माण, पंचेन्द्रियजाति वगैरह ३८ प्रकृति उदयमें होती है।
३ गोत्र-मनुष्यगति है-शरीर है वहां तक गोत्र भी रहता है। नीचगोत्र १४ वे गुणस्थान तक सत्तामें रहता है, किन्तु दीक्षा