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[ १२६ ] मुमकिन है कि श्रा० कुमारसेन ने दिगम्बर अर्यिकासंघ चलाया।
४-प्रा० पूज्यपाद स्पष्ट करते हैं कियेनात्मना नुभूया हमात्म नैवात्मनात्मनि । सोहं न तन्न सा नासौ, नैको न द्वौ न वा बहु ॥ २३ ॥
श्रात्मा श्रात्म भाव को पाता है तब उसे ज्ञान होता है कि मैं न पुरुष हूँ. न नपुंसक हूँ और न स्त्री हूँ । अर्थात् आत्मा आत्मा ही है, और मोक्ष में वही जाता है । पुरुष स्त्री, नपुंसक शरीर मोक्ष में नहीं जाते हैं।
त्यक्त्वैव बहिरात्मानम् ॥ २७॥ मैं पुरुष हूं, इत्यादि बहिरात्म भाव को छोड़ो। यो न वेत्ति परं देहात् ॥ ३३ ॥ दृष्यमानमिदं मूढः, स्त्रिलिग मव बुध्यते ॥ ४४ ॥ बचारा कम अक्ल श्रादमी में पुरुष हूं, मैं नपुंसक हूं, तू स्त्री है, ऐसा मानता है, जब कि मोक्षगामी आत्मा इन लिंगों से रहित है । उसके तो लिंग ज्ञानादि हैं।
शरीरे वाचि चात्मानं० ॥ ५४ ॥ शरीर को प्रात्मा मानना, यह अज्ञानता है । अतः पुरुष मोक्ष जाय, स्त्री नहीं, इत्यादि कहना भी अज्ञानता है।
जीर्णे स्वदेहे प्यात्मानं, न जीर्ण मन्यते बुधः ॥ ६४ ॥ इसके अनुकरण में ऐसा श्लोक भी बन सकता है। खियो देहे तथात्मानं, न स्त्रियं मन्यते बुधः । स्त्री का शरीर होने से प्रात्मा स्त्री नहीं बनती है। लिङ्ग देहाश्रितं दृष्टं, देह एवात्मनो भवः