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[१ ] स्त्रीति नितरामभि मुख्येर्थे युज्यते नेतराम् ॥ ४० ॥ मनुषीषु मनुष्येषु, चर्तुदशगुणोक्ति रायिकासिद्धौ । भावस्त वो परिक्षप्य ०००० नवस्यो नियत उपचारः ॥४१॥ विगतानुवाद नतिौ, सुरकोपादिषु चतुर्दश गुणाः स्युः। नव मार्गणान्तर इति, प्रोक्तं वेदे ऽन्यथा नीतिः॥४५॥ न च बाधकं विमुक्तेः, स्त्रीणामनु शासनं प्रवचनं च । संभवति च मुख्येर्थे, न गौण इत्यार्यिका सिद्धिः ॥ ४६ ॥ ___ सारांश-पुरुष और स्त्री दोनों में माया आदि, द्वेष आदि, छै संस्थान वगैरह समान रूप से हैं। स्त्री राज्य लक्ष्मी पति, पुत्र,भाई बन्धु वगैरह को छोड़कर दीक्षा लेवे फिर भी उसे असत्व क्यों माना जाय ?
एक समय में १०८ पुरुष मोक्ष में जाय, उसके अनुसन्धान में भी स्त्री मोक्ष सिद्ध है । क्षपक श्रेणी में "अवेदि" बनने के बाद भी वो पूर्वकाल की अपेक्षा से स्त्री मानी जाती है। मनुष्य और मनुषिणी दोनों १४ वे गुण स्थान में जात है तब तो आर्यिकामाक्ष स्वयं सिद्ध है।
नव मार्गणाद्वार में पुरुष व स्त्री के लिये एकता है सिर्फ वद में पुरुष और स्त्री को भेद है। स्त्री मुक्ति का बाधक कोई प्रमाण नहीं मिलता है, स्त्री मुक्ति की आज्ञा व प्रवधन मिलते हैं।
(स्त्रो मुक्ति प्रकरण ) ३-दिगम्बर भट्टारक देवसेन लिखते हैं कि
श्रा० जिनसेन के गुरुभ्राता विनयसेन के शिष्य कुमारसेन ने सं० ७५३ में काष्ठासंघ चलाया, और स्त्री दीक्षा की स्थापना की (दर्शन सार गा० ) इतिहास कहता है कि श्वेताम्बर दिगम्बर के भेद होने के बाद दिगम्बर समाज में स्त्री दीक्षा को स्थागत कर दिया था, तीन संघ का ही शासन चल रहा था । अतः