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- ३० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
प्रस्तर लेख के अनुसार एक धार्मिक व्यक्ति ने ५६० कार्षापण को दो धन राशियाँ स्थायी मूलधन के रूप में जमा करवाई जिसके व्याज से ब्राह्मण और दीन-दुखियों को भोजन मिलता था । वसुदेवहिण्डी के अनुसार सुरेन्द्रदत्त ने विदेश जाते समय ३ करोड़ का धन अपने मित्र रुद्रदत्त के पास सुरक्षित रख दिया था और उससे आने वाले व्याज का धन जिनायतन में पूजा और भोग के लिए निश्चित कर दिया था ।
उत्पादन के लिए प्रयुक्त होने वाले ऋणों का जैन साहित्य में स्पष्ट विवरण नहीं मिलता । पाणिनि ने ऋतुओं के अनुसार देय ऋण का वर्णन किया है। जिससे प्रतीत होता है कि यह ऋण कृषि की आवश्यकता को देखते हुए दिये जाते थे ।
परिचित तथा जिनके पास गृह, भूमि आदि अचल सम्पत्ति हो उन्हीं • लोगों के साथ ऋण व्यवहार किया जाता था । दशवैकालिक से ज्ञात होता है कि लोग परोपकार के लिए भी धन का सदुपयोग करते थे । देश में धर्मार्थं संस्थायें बहुत थीं जो धनेच्छुकों की सहायता करती थीं । ५ इस प्रकार जनकल्याण और उत्पादन दोनों के लिए ही पूँजी एक आवश्यक साधन थी ।
सम्पत्ति के अर्जन, उपभोग, रक्षक हेतु व्यक्ति स्वतंत्र था । प्रत्यक्ष रूप से यद्यपि समाज और राज्य का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं था, परोक्षरूप में धार्मिक नियम उसे प्रेरित करते थे कि वह अपनी सम्पत्ति का परिसीमन करके अतिरिक्त धन को लोक कल्याण में लगाये । इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन परम्परा का सम्पत्ति - सिद्धान्त न तो पूँजीवादी स्वतन्त्र निरपेक्षता का सिद्धान्त था और न ही समाजवादी व्यापक प्रतिबन्ध का ही सिद्धान्त था । न्यायोचित साधनों से अपनी अर्जित की हुई सम्पत्ति का व्यक्ति स्वेच्छानुसार उपभोग कर सकता था या संचित कर सकता था । इस प्रकार वह पूँजीवादी और समाजवादी दोनों सिद्धान्तों के दोषों तथा गुणों का समन्वय कर एक समृद्ध आर्थिक व्यवस्था को सूचित करता था ।
१. हुविष्क का मथुरा प्रस्तर लेख, प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह २, पृ०२४ । २. संघदासगणि, वसुदेव हिण्डो, भाग १ / ११२ ।
३. अष्टाध्यायी, ४/३/४९.
४. निश्चलैः परिवितैश्च सह व्यवहारो वणिजां निधिः - नीतिवाक्यामृतम्, ७ / ४०.
५. दशवेकालिक ३/३.
६. उपासकदशांग, १/२८.