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द्वितीय अध्याय : २९
हआ रत्नों का कलश मिला था।' आचारांग में उल्लेख है कि मनुष्य दास-दासी और पशुओं को सहायता से इतना द्रव्य उपार्जन कर लेते थे जो भोगोपरान्त भी पर्याप्त मात्रा में बच जाता था और वही बचत पूँजी के रूप में प्रयुक्त होतो थी। उस समय मौर्यकाल की ऐतिहासिक राजनीतिक एकता और तत्पश्चात् आन्तरिक एवं बाह्य व्यापारिक प्रगति से पूँजी में अत्यधिक वृद्धि हुई थी। लेन-देन का कार्य करने वाली संस्थायें __ ईसा की दुसरी-तीसरी शताब्दी में आज के समान बैंक नहीं थे और न ही कोई ऐमी राजकीय संस्था थी जो व्यापारी और उद्योगकर्मियों को ऋण दे सके। ऋण देने का कार्य वैयक्तिक व्यवसाय के रूप में प्रचलित था। बड़े-बड़े सार्थवाह, गाथापति, निगम श्रेणियाँ और औद्योगिक संस्थायें ब्याज पर पूजी देती थीं। ये संस्थायें आधुनिक बैंकों की भूमिका निभाती थी। व्यापारियों की ऐसी संस्थाओं को जिनके अपने निश्चित कानून थे 'निगम' कहा जाता था। निशीथचूणि से ज्ञात होता है कि निगम और संवाह में रेहन, बट्टे का काम होता था। व्यापारिक संगठन और श्रेणियाँ अपने व्यवसाय से उपार्जित धन को आर्थिक योजनाओं के उत्पादन तथा वितरण में लगाती थीं। इन संस्थाओं का नगर की प्रमुख मंडियों, लेनदेन एवं उद्योगों पर अनुशासन था। ये श्रेणियाँ वैभवपूर्ण तथा जनता की विश्वासपात्र होती थीं। ऐसी संस्थायें व्यक्तियों, व्यापारियों के सुरक्षित धन पर ब्याज देती थीं और उसी धन को पुनः ब्याज पर देकर उत्पादन को बढ़ाती थीं । इन श्रेणियों की इतनी साख थी कि राजा भी कभी-कभी अपना धन इन श्रेणियों में जमा करते थे। नासिक के १२० ई० के लयनलेख के अनुसार शकराज नहपान के दामाद उषवदत्त ने जुलाहों की श्रेणी में २००० कार्षापण (प्राचीनकाल का प्रचलित सिक्का ) जमा किये थे और दूसरी श्रेणी में १००० कार्षापण, जिसका व्याज क्रमशः १ प्रतिशत मासिक और ३/४ प्रतिशत मासिक था । दूसरी शताब्दी के हुविष्क के मथुरा
१. उत्तराव्ययनचूणि, भाग २ पृ० १२२, १३० । २. आचारांग, १/२/३/८१ । ३. अणुवट्टवितेण सह एगळं संवासो, निशीथचूणि, भाग ३/३७६३ । ४. नहपाण का नासिक गुहालेख, पक्ति २/३ : नारायण ए० के० : प्राचीन
भारतीय अभिलेख संग्रह २, पृ० ३३ ।