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२६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन करोड़ सुवर्ण मुद्रायें थीं जिनमें चार करोड़ कोश में संचित थीं, चार करोड़ वाणिज्य में लगी थी और ४ करोड़ घर तथा तत्सम्बन्धी उपकरणों में लगी थी। उसके पास ४००० पशु थे, ५०० शकट यात्रा के लिये और ५०० माल ढोने के लिये थे। चार यात्री और माल वाहक जलयान थे। उसके पास ५०० हल प्रमाण भूमि थी। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी धान्य, पशु, हिरण, सुवर्ण, कुप्य तथा श्रमिकों को संपत्ति कहा गया है। पूंजी के आधार पर धनवान् लोगों का वर्गीकरण किया जाता था। जिसके पास हस्ति-प्रमाण, मणि, मुक्ता, प्रवाल, सुवर्ण, रजत आदि द्रव्य हों उसे "जघन्य इभ्य" कहा जाता था और जिसके पास हस्ति-प्रमाण, वज्र, हीरे, मणि, माणिक्य हों उसे "मध्यम इभ्य" और जिसके पास हस्तिप्रमाण केवल वज्र हीरों की राशि हो उसे "उत्कृष्ट इभ्य" कहा जाता
था।
__ अर्थशास्त्र की परिभाषा में सब प्रकार की सम्पत्ति को पूजी नहीं माना जाता। वही सम्पत्ति जो उत्पादन के लिए प्रयुक्त हो, पूंजी कही जाती है। जैन ग्रंथों में ऐसे कई सन्दर्भ आये हैं जिनसे प्रतीत होता है कि उत्पादन के लिए पूंजी का व्यवहार होता था । उपासकदशांग में ऐसे १० गाथापतियों का वर्णन है जो ब्याज पर ऋण देते थे। तुंगिका नगरी के श्रमणोपासक वृद्धि के लिये धन को (व्याज पर) देते थे।
स्त्रियाँ भी लेन-देन का कार्य करती थी। काकंदी नगरी की भद्रा सार्थवाही न्यायपूर्वक आजीविका करने वालों को ऋण देती थी । अष्टा१. चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडोओ वुड्ढपउ
ताओ चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ पवित्थपउत्ताओ, चत्तारि वव्या दसगोसाहस्सिएणं, पंचहिं हलसएहिं णियतणसइएणं हलेणं, पंचहिं सगडसएहिं दिसायत्तिएहिं पंचहिं सगडसएहि, संवाहणिएहिं, चउहि वाहणेहिं संवाहणिएहिं । चउहिं
वाहणेहिं दिसायत्तिएहिं उपासकदशांग, १/२-२८. २. धान्यपशुहिरण्यकुप्यविष्टिप्रदान-कौटिलीय अर्थशास्त्र, १/४/१. ३. अन्तकृतदशांग, १/५. ४. भगवतीसूत्र, सूत्र /२५/११ ( तुंगिका नगरी की स्थिति राजगिरि के आस
पास मानी जाती है)। ५. अनुत्तरोपपातिक दशा, ३/१/१० (काकंदी नगरी इसकी स्थिति विहार के
मुंगेर जिले में मानी जाती है । डी० सी० सरकार : स्टडीज इन ज्योग्राफी आफ एन्शियेंट इण्डिया, पृ० २५४.