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१९६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन ग्रंथों से पता चलता है कि अभिजात कुलों के पुत्र लोकाचार तथा शिष्टाचार की शिक्षा पाने के लिये गणिका के पास भेजे जाते थे । वसुदेवहिण्डी से प्रमाणित है कि राजकुमार धम्मिल को शिक्षा के लिये गणिका के पास भेजा गया था जिसके लिये वह प्रतिदिन गणिका की माँ को ५०० सिक्के देता था। इसी प्रकार आवश्यकचूणिसे भी ज्ञात होता है कि नन्द के मंत्री शकडाल के पुत्र स्थूलभद्र को भी कोशानामक गणिका के पास भेजा गया था ।२ गाँव और नगरों में बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा के लिये विद्यालय होते थे। जिन्हें “दारकशाला" या "लेभशाला" कहा जाता था । शिक्षा के प्रसार के लिये राज्य पर्याप्त धन व्यय करता था। नालन्दा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय शिक्षा के प्रसार को प्रदर्शित करते हैं।
विद्यार्थी का समाज में बड़ा सम्मान होता था। जब कोई विद्याध्ययन करके घर आता था तो उसका सार्वजनिक सम्मान किया जाता था। जैनग्रंथों में व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा-प्रशिक्षा के विद्यालयों का उल्लेख नहीं मिलता। अनुमान है कि ऐसी विद्या पुत्र को पिता से परम्परा से प्राप्त होतो थी और इसो कारण ऐसी विद्या में दक्षता बढ़ जाती थी। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा
सूत्रकाल में लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग प्रतीत होते हैं क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र से पता चलता है कि देश में चिकित्सा की सुविधायें उपलब्ध थीं।' मौर्य सम्राट अशोक ने अपने राज्य में मनुष्यों और पशुओं के लिए निःशुल्क चिकित्सालय और औषधालय खुलवाये थे । ज्ञाताधर्मकथांग से सूचना मिलती है कि राजगृह के नंदनमणिकार ने पुष्करिणी के तट पर एक निःशुल्क चिकित्सालय खुलवाया था जहाँ वेतनभोगी वैद्यों को नियुक्त किया था। राज्य के वैद्य आयुर्वेद के कुशल ज्ञाता हुआ १. वसुदेवहिण्डी, १/२९ २. आवश्यकचूर्णि, भाग २/१८४ पृ० ३. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३/२९२९ ४. उत्तराध्ययन सुखबोधा पत्र २३ ५. उत्तराध्ययन, १५/८ ६. गिरनार की द्वितीय शिलालेख पंक्ति ४-८; नारायण, ए० के० : प्राचीन
भारतीय अभिलेख संग्रह २, पृ० ५ ७. ज्ञाताधर्मकथांग, १३/२२