________________
अष्टम अध्याय : १९५ था। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि गणिकायें और वारांगनायें भी तत्कालीन समाज का मनोरंजन करती थीं। वे समाज में सम्मानित थीं स्वयं राजा उन्हें रथ, चामर, छत्र, स्वर्णघट आदि से सम्मानित करते थे । धनी और कामी गणिकाओं को प्रभूत धन देकर उनका उपभोग करते थे।३ कौटिलीय अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि गणिकायें इतनी धनी होती थीं कि इनकी आय पर राज्य कर लेता था। शिक्षा
चरित्र और व्यक्तित्व के सर्वाङ्गीण विकास के लिये शिक्षा परम आवश्यक है। मनुष्य को एक शिष्ट सामाजिक प्राणी बनाने का कार्य शिक्षा ही करती है। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि जीवनो'पयोगी ७२ कलाओं की शिक्षा दी जाती थी।" उत्तराध्ययन से ज्ञात होता है कि आजीविका के लिये छिन्नविद्या ( वस्त्र, काष्ठ आदि की 'विद्या ) एवं स्वरविद्या भौमविद्या, अन्तरिक्षविद्या, लक्षणविद्या, वास्तुविद्या और अंगविचारविद्या सीखी जाती थी।"
विद्यार्थी को विद्याध्ययन के लिये गुरुकुलों में निवास करना पड़ता था। राजपूत्रों का विद्यार्थी जीवन भी गुरु के सान्निध्य में ही व्यतीत होता था जहाँ वे राजनीति, युद्धविद्या, अर्थनीति आदि अन्यान्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करते थे। अन्तकृत्दशांग से ज्ञात होता है कि भद्दिलपुर के राजा जितशत्रु के पुत्र अनीयस कुमार को ८ वर्ष की आयु में कलाचार्य के पास विद्याध्ययन के लिये भेजा गया था। गुरु से शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद शिष्य उन्हें गुरुदक्षिणा भेंट करते थे। कन्यायें भी शिक्षा प्राप्त करने के लिये गुरुकुलों में जाती थी पउमचरियं से ज्ञात होता है कि चक्रध्वज की कन्या गुरु के घर में रहकर विद्याध्ययन करती थी। जैन
१. उत्तराध्ययन, १८/१ २. ज्ञाताधर्मकथांग, ३/५ ३. वही, ३/१६ ४. कौटिलीय अर्थशास्त्र, २/२/२० ५. उत्तराध्ययन, १५/७ ६. ज्ञाताधर्मकथांग, १/८५ ७. ज्ञाताधर्मकथांग, १/८६ ; अन्तकृत्दशांग, ३/१/३ ८. अन्तकृत्दशांग ३/१/३ ; ज्ञाताधर्मकथांग १/८७ ९. पउमचरियं, २६/५