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षष्ठ अध्याय : १६१
इनसे परामर्श लेते थे और राज्य की विषम परिस्थितियों में इनसे सहायता ली जाती थी। इससे स्पष्ट होता है कि अथाह सम्पत्ति और राजकीय नीतियों के प्रभाव के कारण आय का अधिकांश भाग ऐसे ही व्यापारी प्राप्त करते थे। राष्ट्रीय आय के वितरण में सबसे बड़ा भाग लाभ के रूप में ही जाता था और प्रभावशाली व्यापारी असीम धन के स्वामी बन बैठते थे। उपासकदशांग के अनुसार इनके धन की गणना करना संभव नहीं था। अतः उसे बर्तनों से मापा जाता था। स्वनामधन्य धनाढ्य गाथापति महाशतक ने अपरिग्रह व्रत का पालन करते हुये प्रतिदिन दो द्रोण परिमाण सुवर्णमुद्राओं के लेनदेन का नियम ले रखा था।'
जैन ग्रन्थों में उपलब्ध प्रसंगों से स्पष्ट होता है कि श्रमणोपासक व्यापारी न्याय और नीतिपूर्वक अर्थोपार्जन कर समाजसुधार तथा उत्थान का कार्य करते थे। भगवतीसूत्र में तुगिया नगरी के श्रावकों के आदर्श जीवन का चित्रण करते हये कहा गया है कि वे स्वभाव से उदार और दीनों तथा असहायों के सहायक थे। ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख है कि बड़े-बड़े सार्थवाह भी दयालु प्रवृत्ति के होते थे, वे सार्थ प्रस्थान के पूर्व यह घोषणा करते थे कि व्यापारिक उद्देश्य वाले यात्रियों की समस्त सुविधाओं की व्यवस्था सार्थवाह करेगा और यदि किसी व्यापारी का धन घट जायेगा तो उसकी सहायता भी सार्थवाह करेगा। इससे छोटे व्यापारियों को बड़ी सुविधा हो जाती थी, क्योंकि अकेले यात्रा करने के साधन उनके पास नहीं होते थे। उदार सार्थवाहों की सहायता से वे अपने अल्पसाधनों से भी दूर-दूर तक व्यापार करने में समर्थ हो पाते थे। वितरण का स्वरूप
प्राचीन जैन ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उनके रचनाकाल में आर्थिक स्वतंत्रता थी। व्यक्ति यथेच्छ धन अर्जित कर सकता था। राज्य की ओर से कोई प्रतिबन्ध नहीं था।५ परिणामतः समाज दो वर्गों
१. उपासकदशांग १/१३; ज्ञाताधर्मकथांग २/१० २. उपासकदशांग ८/४ ३. भगवतीसूत्र २/५/११ ४. ज्ञाताधर्मकथांग १५/६ ५. उपासकदशांग १/१२; ज्ञाताधर्मकथांग ८/६४, १३/१८
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