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१६० : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन का किराया, श्रमिक का वेतन और राज्य कर-का भुगतान कर देने पर प्रबन्धक के पास जो धन बचता है उसे लाभ कहा जाता है निशीथचूर्णि से ज्ञात है कि ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी से सार्थवाह, गाथापति और वणिक् अपनी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के साथ श्रम तथा पूँजी को इस प्रकार संगठित करते थे कि उनको भरपूर लाभ होता था। वे आय और व्यय की समुचित व्यवस्था से लाभ प्राप्त करते थे।' व्यापारी सदैव सावधान रहते थे कि व्यापार से उन्हें पर्याप्त लाभ हो और जिस व्यापार में उन्हें लाभ की आशा नहीं होती थी वे उस व्यापार को नहीं करते थे। यह लाभ व्यापारी को कुछ तो अपनी दूरदर्शिता और साहस के कारण और कुछ अनुकूल परिस्थितियों के कारण होता था। लाभांश राज्य की व्यापारिक नीतियों पर भी निर्भर करता था। राज्य सदा सतर्क रहता था कि व्यापारी किसी वस्तु का मनमाना मूल्य निर्धारित कर मिलावट करके या कम माप-तौल करके अधिक लाभ न उठाये। मूल धन से द्विगुणा लाभ लेना मान्य था।
प्रश्नव्याकरण के अनुसार अनैतिक या असामाजिक रीति से अजित धन चोरी है। अतः उतना ही लाभ लेना चाहिये जिससे किसी का शोषण न हो । प्राचीनकाल में भी कुछ व्यापारी आर्थिक दृष्टि से इतने सम्पन्न हो जाते थे कि राज्य के नियमों और नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते थे। ज्ञाताधर्मकथांग में कुछ ऐसे व्यापारियों का वर्णन है जो बहुमूल्य उपहार देकर शुल्क-मुक्त हो गये थे।
उपासकदशांग से ज्ञात होता है कि समद्ध गाथापतियों और श्रेष्ठियों का राजकीय सम्मान होता था। राज्य के व्यापारिक विकास में राजा भी
१. आय-व्यय तुलज्जा लाभा करियं व्व वाणियओ'
निशीथभाष्य गाथा २०६७ २. 'जहा लाभत्थो वणिओ मूलं जेण तुट्टति तारिसं पण्णं णो किणति जत्थ लाभ
पेच्छति तं किणति, वही भाग २ गाथा २५२२, ४९११ ३. सोमदेवसूरि-नीतिवाक्यामृतम् ८०१८, १४, ८०२२ ४. वही १८०६५ ५. प्रश्नव्याकरण ३/३ ६. ज्ञाताधर्मकथांग ८/८३