________________
२ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन अनुसार पूर्व, द्वादशांगी के पहले रचे गये थे । आवश्यकनियुक्ति में ऐसा उल्लेख है कि द्वादशांगी को रचना से पूर्व गणधरों द्वारा अर्हत् भाषित के आधार पर “चतुर्दशपूर्व' रचे गये थे। पूर्वो में निहित श्रुत, ज्ञान की अक्षय निधि था । जो श्रमण १४ पूर्वो का ज्ञान धारण करते थे उन्हें श्रुत केवली कहा जाता था। 'पूर्व' सर्वसाधारण के लिये बोधगम्य न होने के कारण द्वादश अंगों की रचना की गई और पूर्व साहित्य को दृष्टिवाद के अन्तर्गत मान लिया गया। अंगसत्र
जैन ग्रंथों में सम्पूर्ण आगम साहित्य का वर्गीकरण अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य के रूप में किया गया है। अंग-प्रविष्ट के अन्तर्गत द्वादश अंग' और अंग-बाह्य के अन्तर्गत शेष आगम साहित्य माना जाता है ।" महावोर के, निर्वाण के लगभग एक सहस्र वर्ष बाद देवद्धिक्षमाश्रमण ने इस अंग साहित्य के ११ अंगों का अन्तिम बार संकलन एवं सम्पादन किया, जो अंगसत्रों के रूप में उपलब्ध हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आगमों में बारहवें अंगसूत्र दृष्टिवाद जिसका एक भाग पूर्व साहित्य था और एकादशांगी के कतिपय अंशों को छोड़कर, शेष आगम साहित्य आज भी उपलब्ध है जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार समग्र आगम साहित्य विस्मृति के गर्भ में चला गया। ऐसा प्रतीत होता है कि उपलब्ध आगम साहित्य के कुछ अंश दिगम्बर परम्परा के अनुकूल नहीं हैं, इसी से उससे असहमत होने के कारण उसने सम्पूर्ण आगम साहित्य को ही विलुप्त मान लिया है।
अंगप्रविष्ट मूलागमों के बाद अंगबाह्य आगमों का स्थान है । बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार इनकी रचना १४ पूर्वधारी और १० पूर्वधारी श्रुतकेवली स्थविरों (आचार्यों) ने अपने शिष्यों के लिए की थी। १. आचारांगनियुक्ति गाथा ८-९. २. नंदीसूत्र, सूत्र ५१ : बृहत्कल्पभाष्य, १४५. ३. अहवा तु समासओ दुविहं पण्णतं तं जहा अंगपविद्ध अंगबाहिरं च-नंदीसूत्र,
सूत्र ४५ ४. नंदीसूत्र, सूत्र ४५. ५. वही, सूत्र ४४. ६. यद् गणधरै : कृतं तदङ्गप्रविष्टम् । यत्पुनर्गणधरकृतादेवस्थविरनिर्मूढम्
तान्यनंगप्रविष्टमिति १-बृहत्कल्पभाष्य, १४४.