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प्रथम अध्याय
प्राचीन जैन साहित्य का सर्वेक्षण
हिन्दू तथा बौद्ध साहित्य के समान ही जैन साहित्य भी भारतीय जीवन के विविध पक्षों को उद्घाटित करता है । जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग अंग-आगम है, जो अर्धमागधी भाषा में निबद्ध है ।' नंदीसूत्र में कहा गया है कि श्रुतज्ञान के मूलप्रणेता तीर्थंकर महावीर हैं । जैन ग्रंथों में कहा गया है कि महावीर ने जो प्रवचन दिया था उसे गौतम आदि गणधरों ने सूत्रबद्ध किया था । भद्रबाहु ने भी लिखा है कि 'अर्हतों' ने धर्म का उपदेश दिया तथा गणधरों ने धर्मसंघ के हित के लिये उसे सूत्र रूप में निबद्ध किया । ३
इस प्रकार महावीर के पश्चात् लगभग एक सहस्र वर्ष तक अर्हतों की सूत्रबद्ध वाणी स्मृति परंपरा से चलती रही । इतने दीर्घकाल तक मौखिक परंपरा में रहने के कारण इनमें से बहुत कुछ विस्मृति के गर्भ में चला गया होगा और बहुत कुछ प्रक्षिप्त भी हुआ होगा । फिर भी इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इस विशाल साहित्य में एक सहस्र वर्ष की परम्परागत विविध सामग्री संग्रहीत है ।
समवायांग में आगम साहित्य के दो विभाग कहे गये हैं- " चतुर्दश पूर्व " और " द्वादशगणिपिटक " । संख्या में चौदह होने के कारण पूर्व "चतुदेशपूर्वं" के नाम से प्रसिद्ध हुये । इसी प्रकार संख्या में १२ होने के कारण अंगसूत्र “द्वादशगणिपिटक " और द्वादशांगी के नाम से प्रसिद्ध हुये । महावीर के पूर्व के जैन साहित्य को " पूर्व" कहा गया है । भद्रबाहु के
१. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए घम्ममाक्खई' - समवायांग ३४ /२१ २. 'जयइ सुआणं पभवो महावीरो' - नंदीसूत्र, सूत्र २
३. अत्थं भासइ अरहा सुत्त गंथंति गणहरा' - आवश्यक नियुक्ति गाथा ९२ अथ भाइ अरिहा तमेव सुत्ती करेंति गणधारी " - बृहत्कल्पभाष्य १९३ 'अत्थं भणति पगासेति अरहा सुत्तं गणहरा' - आवश्यकचूर्णि
४. समवायांग, १४/९३ : नंदीसूत्र, सूत्र ८९.
५. सूत्रकृतांग २/१ : सुय बारसंग - सिहरं, दुवालसंग गणि पिडगं - नंदीसूत्र, १८-४१