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414 / Jijñāsa
जबकि पण ताबे को सिक्का था जिसका मूल्य 20 माश काकिनी के समकक्ष वजन का था। काहापण, पण, मासक, काकनिका मद्र आदि अन्य मुद्राए थी जो उस समय प्रचलित थे। इन सब साक्ष्यों के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि प्रतिहार काल का व्यापार वाणिज्य समृद्धि भी सिक्कों के बहुल प्रचलन के प्रतीक था। व्यापारी राजा के अधीन ही कार्य करते थे। यह अवश्य है कि उस समय भी धार्मिक संस्थाएं राजा को नियंत्रित करती थी और शक्तिशाली थी।
10वीं शताब्दी में एक गुर्जर प्रतिहार दानपत्र में एक गांव की आय में से 500 मुद्रा किसी देवालय के लिए लगाए जाने का उल्लेख है।1० लगता हैं 9वी शताब्दी के आसपास नगद कर लेना आरम्भ हो गया था। जबकि भूमिकर प्रायः अनाज के रुप में लिया जाता था। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि प्रतिहारकालीन आर्थिक स्थिति अच्छी थी। और वह सांमतवादी व्यवस्था पर आधारित नहीं थी।
प्रतिहार शासको ने अरबों की आंधी को रोका। यह वह समय था जबकि वे एशिया दक्षिणी यूरोप तथा उत्तरी अफ्रीका में अपने प्रभावित क्षेत्र स्थापित कर चुके थे। ऐसे शक्ति शाली अरब अनुभवकारियों ने न सिर्फ देश की रक्षा की वरन् शांति स्थापित की। अरब लेखक उनके राज्य को डाकुओं से सुरक्षित मानते थे। इतना ही नही हर्ष के समय सुरक्षा इतनी मजबूत नही थी जितनी प्रतिहार काल में। जबकि प्रतिहारों का साम्राज्य हर्ष की तुलना में कही अधिक विस्तृत था। इन सब के लिए उनकी प्रशासनिक व्यवस्था की सफलता को जिम्मेदार माना जा सकता है। ___ यद्यपि यह सही है कि प्रतिहारों के पतन में सामन्तो की महत्वाकांक्षा के लिए, परवर्ती कमजोर प्रतिहार शासक उत्तरदायी रहे। डा. दशरथ शर्मा तो इसे प्राकृतिक या व्यवहारिक परिणिति कहते है। इस समय भारत के प्रत्येक भाग में प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्रो का विकास हुआ। विद्वान कवियों को आश्रय दिया गया। ओसियॉ, कन्नौज के वास्तुशिल्प का विकास हुआ। तकनीक के कारण उसे प्रतिहार कला भी कहा जाता है। (आर्थिक दृष्टि से भी प्रतिहार काल युद्ध और शांति दोनों ही समय अत्यंत गौरव शाली रहा) इस मत का समर्थन आर.एस. शर्मा भी करते हुए प्रतीत होते हैं, जो मानते है कि सामन्तीकरण से स्थानीय सांस्कृतिक ईकाइयां पनपी, जिनसे क्षेत्रवाद, क्षेत्रीय भाषा, लिपि, यहां तक कि स्थापत्य कला के क्षेत्र में भी क्षेत्रीय तत्व विकसित हुए। यह माना जाता है कि व्यापार वाणिज्य का विकास 12 वी शताब्दी के बाद काफी बढ़ गया। अतः इस युग को अंधकारमययुग कहने की संभावना ही अनुचित है। संदर्भ :
“यह पुनर्निरीक्षण मुख्य रुप से दान अभिलेखीय साक्ष्यों पर आधारित हैं, क्योंकि इस समय भूमिदान के साक्ष्य बहुतायत से प्राप्त है जिनके माध्यम से इस युग की व्याख्याएँ विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रुप में की हैं। 'डॉ० दशरथ शर्मा, राजस्थान थू द एजेज, जिल्द 1. पृ. 124-130, भारतीय विद्या, जिल्द 18, पृ. 74-80.
दृष्टव्य -- इलियट एण्ड डाउसन, हिस्ट्री ऑव इण्डिया एज टोल्ड वाइ इट्स ओन हिस्टोरियन्स, जिल्द 1, पृ. 126 : हसोट अभिलेख. एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द 18, पृ. 197 एव आगे।
जैन, हरिवंश पुराण, 66.53, सम्पादित रामकृष्णन उपाध्याय, 2011. * एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द 18, पृ. 96 : पृथ्वीराज विजय, जयानक कृत, पंचम, 20 एवं इण्डियन हिस्टोरिकल वचार्टरली, जिल्द पृ. 844 5 एपि-इण्डिका, जिल्द 1 पृष्ट 108, 112 लोक 1 से 11 तक। • पाठक विशुद्धानंद, उत्तरभारत का राजनैतिक इतिहास, लखनऊ, 1990, पृ. 149. 7 पाठक वी. एन., पूर्वोक्त, पृ 149. । इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, चतुर्थ अंक, पृ. 366 , पाठक वी. एन, पूर्वोक्त पृ. 152-153.
राजशेखर कृत बाल रामायण दशम, 98, सम्पादित सीवानंद विधुत सागर कलकत्ता-1884 10 पाठक वी.एन., पूर्वोक्त पृ. 146. पृ 6434-35.