SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्व मध्यकालीन उनर भारत की राजनीतिक व्यवस्था / 413 है। श्रेणियों के समस्त सदस्यों को एक पालिका तेल हर कोलुक या तेल निकालने वाली मशीन (घाणी) से देना पड़ता था। इस उद्देश्य से जुड़े सभी तैल व्यापारी कर भी देते थे। व्यापारी को व्यवहारक कहा गया है क्योंकि वह व्यवहार (न्याय का कार्य) भी करता था, दुकानदार को सेतिय, घोड़े के व्यापारी को घोटिका, कारवा ले जाने व्यापारी को सार्थवाह कहा गया है। सुर्वण के व्यापारी, शराब के व्यापारी, नमक, ताम्बूल (पान), तैलिक (तेल), गन्धी (सुगन्ध बेचने वाले), मोदककार मिष्ठान बनाने वाले आदि अनेक प्रकार के व्यवसाय करने वाले व्यापारियों के उल्लेख मिलते हैं। व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास भी करते थे। वणिक, धर्कट जाति के व्यापारी नागभट्ट लाटमण्डल के आनंदपुर से ग्वालियर आए थे। इसी तरह भद्रप्रकाश और भामत्तक नामक दो व्यापारी भीनमाल के तटानंदपुर के रहने वाले थे और अहाड़ में कचनदेवी मंदिर में दुकान खरीदी थी। इतना ही नही महत्वपूर्ण सूचना यह भी मिलती है राजपूताना के अहाड़ में कर्णाट, मध्यप्रदेश, लाट, टक्क देश के व्यापारी आकर सामान बेचते थे और उस पर लगने वाले कर को भी अदा करते थे। अतः पूरे भारत में यह स्थान व्यापार वाणिज्य की गतिविधियों का एवं प्रमुख केन्द्र था। यह स्थिति विकसित उन्नति कारक एवं स्थापित अर्थ व्यवस्था समृद्ध जीवन की ओर सकेत करती है। कृषि अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार रहा हैं। अभिलेखों की सूचना हैं कि ब्राहमण और क्षत्रीय भी यह कार्य करते थे। गुर्जरों को भी खेतीहर कहा गया है। 100 स्पष्ट है खेती करना अच्छा माना जाता रहा होगा। सभवतः जन साधारण कृषि कार्य करते थे। राजा द्वारा भूमि दान में दी जाती थी तो दानग्रहिता को भूमि का मालिकाना अधिकार मिलता था। साथ ही उस पर कार्य करने वाले मजदूर या कृषक भी मिलते थे, जिन्हें बेगार करने वाले या विष्टिका कहा गया है।101 लगता है भूमि के साथ कामगार भी मिलते थे। महत्वपूर्ण बात तो यह हैं भूमि का मालिक कृषि मजदूरों को बदल भी सकता था। राजाओं द्वारा सिंचाई की व्यवस्था करवाई जाती थी। वे तालाब भील, कुए, बांध, नहरों का निर्माण करवाते थे। भूमि की पैमाइश की जाती थी जो मर्यादाधुर्य का कार्य था उस समय परमेश्वर हस्त नालुक भूमि नाप के रुप में प्रचलित थे।103 ___ अच्छी अर्थव्यवस्था का मापदण्ड मुद्रा विनिमय माना जाता हैं। प्रतिहार काल में अनेक प्रकार की मुद्राओं के चलन होने का उल्लेख मिलता हैं। सिक्के दाम, द्रम, पण, विशोपक, रुपक आदि कहलाते थे। 14 सिक्का द्रम या दाम यूनानी सिक्के द्रख्म से मिलता जुलता था। भण्डारकर के अनुसार गुर्जर शासकों के सिक्के ससेनियन सिक्कों से प्रभावित थे, क्योंकि दाम सिक्का 65 ग्रेन का था जबकि यूनानी द्रख्म 66 ग्रेन का था।106 पण सिक्के को पण्चीयक पण कहा गया है। सीयक्षेणी अभिलेख में "श्रीमद आदिबराह द्रमस्य पण कहा गया हैं।10% यह द्रम का / भाग था। विग्रह तुगिया द्रम यह द्रम और पण के बीच के रहा होगा। राजौर अभिलेख में प्रत्येक एक बोरी कृषि उत्पाद पर तीन विशोपक कर के रुप में लेते थे। यह दाम का 1/20 भाग के बराबर था। यह सिक्का पतंजली के समय प्रचलित विंशोपक से मेल खाता है, जो कि चांदी का सिक्का था।107 इसी तरह अहाड़ अभिलेख में उल्लेख मिलता है कि गुहिल शासक अल्लट के समय एक हाथी की ब्रिकी पर एक द्रम, घोड़े की ब्रिकी पर दो रुप जबकि घरेलू मवेशी की ब्रिकी पर दाम का 1/40 वां भाग लिया जाता था।108 हाथी का मूल्य दाम में घोड़े का रुप में तो स्पष्ट है, रुप दाम से छोटा था. दाम चूंकि चांदी का सिक्का था तो रुप भी चांदी का ही होगा।109 प्रायः यह कहा जाता है कि इस काल में मुद्राओं की कमी थी। किन्तु उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि मुद्राओं की कमी नहीं थी। प्रचलित मुद्राओं के सन्दर्भ से यह पुष्ट होता है कि व्यापार वाणिज्य भी समृद्धि पर था।
SR No.022813
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages236
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy