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मारवाड़ की जल संस्कृति / 379
47. मारवाड़ की जल संस्कृति
महेन्द्र सिंह
"चार खुणा री बावड़ी, भरी झबोला खाय।
हाथी घोड़ा हुब जाय, पणिहारी जाय।।" पुराणों में मारवाड़ को मरु प्रदेश, मरुकान्तार, आदि नामों से संबोधित किया गया है। इसका कारण है कि यह जल के अभाव वाला प्रदेश रहा है। कोशकारों ने भी 'मरु' शब्द का अर्थ रेगिस्तान व जल विहीन प्रदेश बताया है। यथा
1. मरु - रेगिस्तान, रेतीली भूमि, वीरान, जल से हीन प्रदेश
2. मरु - वह भूभाग या प्रदेश जहां पानी नहीं, केवल रेत के सूखे मैदान या टीले हों, रेगिस्तान, मरु भूमि। मारवाड़, वह पर्वत जो जल रहित हो।'
3. मरु - मरु भूमि. रेगिस्तान, मारवाड़।'
उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि "मरु" शब्द ही जलविहीन एवं सूखे प्रदेश का द्योतक है। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस प्रदेश में "जल" का कितना महत्त्व रहा है। एक तरफ जहां वनस्पति सहित, प्राणीमात्र के लिये "जल ही जीवन" है और वहीं दूसरी तरफ जिस प्रदेश या क्षेत्र में 'जल' का नितान्त अभाव रहा हो वहां इसका कितना महत्त्व रहा होगा, इस बारे में अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। __ जीवन के लिये सर्वाधिक अनिवार्य तत्व और इसी का सर्वाधिक अभाव, जीवन के प्रति हर पल विकट परिस्थिति पैदा करने वाली बात है। जो वस्तु जीवन का हर पल प्रभावित करने वाली है और इसी का अभाव हो तो उसके मूल्य का अनुमान भी सहज ही लगाया जा सकता है। इसीलिये यहां के लिये यह अनुश्रुति प्रचलित है कि "सस्ता खून और महंगा पानी।"
इसके अलावा सूखा प्रदेश होने के कारण यहां गर्मी का प्रकोप भी अत्यधिक रहता है। चैत्र मास से असाढ़ मास तक (जब तक वर्षा न हो) मारवाड़ की प्रचण्ड गर्मी एवं 'लू' (तेज गर्म हवा) के कारण आद्र प्रदेशों में रहने वाले जीवों की रूह कांपने लगती है। इस अवधि में अन्य प्रदेशों के लोग यहां आने से घबराते हैं।
वैसे तो “जल ही जीवन" का यह मूल सिद्धान्त सर्वत्र एवं समस्त प्राणीमात्र एवं वनस्पति मात्र के लिये समान रूप से लागू होता है। प्रकृति के पांच भौतिक तत्वों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पदार्थ जल है, फिर हवा है। पानी से प्यास बुझती है। अन्न एवं वनस्पतियां पानी से ही फलती-फूलती है। भोजन पकाना एवं पचाना पानी के बिना संभव नहीं। पानी प्राणी मात्र के लिये प्राणदायक शक्ति है।