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ऋग्वेद की विदुषी नारियाँ / 365
घोषा , गोधा', विश्ववारा, अपाला11, उपनिषद्12 निषद्, ब्रह्मजाया जुहू14 , अगस्त्य की भगिनी15, अदिति ०, इन्द्राणी17, और इन्द्र की माता18, सरमा'9, रोमशा20, उर्वशी, लोपामुद्रा22 और नदियाँ, यमी24, पत्नी-शश्वती25, श्री26, लाक्षा27, सार्पराज्ञी28, वाक्, श्रद्धा, मेधा31, दक्षिणा32, रात्री और सूर्या सावित्री4 ये सभी ब्रह्मवादिनी अथवा ऋषि हैं। विषय के आधार पर शौनक ऋषि ने ऋग्वेद की 27 स्त्री ऋषियों को नौ-नौ के तीन वर्गों में विभक्त किया है। प्रथम वर्ग ने देवताओं की स्तुति की, बीच के वर्ग ने ऋषियों तथा देवताओं से वार्तालाप किया, अन्तिम वर्ग ने आत्मा की भाववृत्ति का गायन किया। अन्तिम वर्ग में जो ऋषि हैं, वह स्वयं देवता भी हैं। इन ऋषिकाओं की सूची के अतिरिक्त सिकता-निवावरी, शिखण्डिनी द्वय 6, वसुक्रपत्नी7 आदि भी मन्त्रदृष्टा हैं। यह सत्य है कि ऋग्वेद में लगभग 500 ऋषियों की तुलना में लगभग 32 ऋषिकाओं की संख्या कम है, किन्तु इन ऋषिकाओं को संख्या की न्यूनता के कारण मन्त्र-स्पर्धा में ऋषियों के साथ देखना न्यायसंगत नहीं है। ऋषिकाओं ने गरिमा से युक्त, मातृत्व की भावना से परिपूर्ण अपनी प्रज्ञा से ऋचाओं को भी जन्म दिया साथ ही ऋषियों को संसार सुख की अनुभूति भी प्रदान की तथा यज्ञ गृह का सरंक्षण भी किया।
भारतीय समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था का मूल हमें ऋग्वेद की इन ऋषिकाओं के मन्त्रों में यत्र तत्र दिखाई देता है। ब्रह्मवादिनी सूर्या8 सोमरस की महिमा में ब्रह्मवेत्ता का वर्णन करती है। यही सूर्य के रथ चक्रो के उल्लेख में पुन: ब्राह्मण शब्द का उल्लेख करती हैं। वाग्देवी की असीम कृपा ही उन्हें ब्रह्म पद का अधिकारी बनाती है। विवाह के अवसर पर वधू द्वारा ब्राह्मणों को दान दिया जाता था।+1 ब्रह्मजाया जुहू क्षत्रिय बल से राष्ट्र को सुरक्षित बताती है। 2 ऋषिका अपाला इन्द्र से पिता के खेत को उर्वर करने की प्रार्थना करती है।43 ऋग्वेद में घोषा कक्षीवती भृगुवों द्वारा रथ निर्मित करने का उल्लेख करती है। इन वर्णव्यवस्था सम्बन्धित शब्दों के साथ, मन्त्रों में आश्रम-व्यवस्था से सम्बन्धित शब्दों के द्वारा उनकी उपस्थिति के ऐतिहासिक तथ्यों से पहचान कराती है। विदुषी जुहू पत्नी का परित्याग करने वाले अपने पति बृहस्पति के ब्रह्मचर्य पालन का वर्णन करती है। विवाह सूक्त में भी ब्रह्मचर्य का उल्लेख है। ऋग्वैदिक काल में गृहस्थाश्रम का सर्वाधिक महत्त्व है। विज्ञ महिलाओं की ऋचाओं से स्पष्ट है कि उनका झुकाव घर को सुखपूर्वक सुचारू रूप से चलाने में है। इसीलिए ऋक् संहिता में ऋषिका रोमशा के पति भावयव्य, सूक्त के षष्ठ मन्त्र में सहस्वामिनी के भोज्य पदार्थ, ऐश्वर्य एवं अगाध स्नेह से सिक्त पत्नी की प्रशंसा करते हैं। 7 लोपामुद्रा नारी के अधिकारों और कर्तव्यों को पुरुष के समान बताते हुए सम्मिलित रूप से गृहस्थ धर्म की ओर उन्मुख करती है। पितृ-ऋण से मुक्ति के लिए वृद्ध होने पर भी लोपामुद्रा अगस्त्य ऋषि से सन्तान की इच्छा व्यक्त करती है।9 मन्त्र दृष्टा शश्वती पति-पत्नी के मधुर-सम्बन्ध की व्याख्याता थी। सूर्या के विवाह सूक्त में नारी को घर की शासिका माना है। जहाँ वह वृद्धावस्था तक अपने पति की प्रीतिभाजन बनकर शासन करे। नारी सौभाग्य की प्रतीक मानी जाती थी। इन्द्राणी स्वयं को सबसे अधिक सौभाग्यवती एवं पुत्रवती मानती है। मेरे पति और सामान्यजनों पर मेरा पूर्ण अधिकार है। मेरे पुत्र शत्रुओं पर विजय पाने वाले हैं। मेरी पुत्री तेजस्विनी है और मैं स्वयं विजयनी है। स्त्री के तीन पद गृहिणीपद, मातृपद एवं सहचरी पद महत्त्वपूर्ण थे।
इन्हीं के साथ कुछ अन्य सामाजिक साक्ष्यों पर भी ये ऋषिकाएँ प्रकाश डालती हैं । जैसे इन्द्राणी सपत्नी सौत की अप्रियता का वर्णन करती है। अश्विनों की स्तुति में घोषा, मधुमक्खियों की तुलना व्यभिचारिणी स्त्रियों से करती है। यम-यमी संवाद में यम न केवल बहिन के सह-सम्बन्ध के अनुरोध को ठुकराता है, वरन् बहिन-भाई के इस गर्हित कृत्य को समाज कभी स्वीकार नहीं करता है। संभवतःसमाज में ऐसे छुटपुट उदाहरण रहे हों, परन्तु समाज में स्त्रियों का स्थान सर्वोच्च था। वह गृहस्वामिनी थीं। पुलोम पुत्री शची अपनी सौतों को परास्त करके वीर58 इन्द्र और कुटुम्बियों पर अधिकार चाहती है। सतीत्व के प्रति आस्थावान, सच्चारित्र एवं पति के प्रति एकनिष्ठ थीं। साथ ही अलंकरण और स्त्री सौन्दर्य, लालित्य के प्रति जागरूक थीं। कहीं-कहीं नियोग प्रथा से सम्बन्धित ऋचाएँ भी हैं, जो इस काल में भी इस प्रथा की मान्यता की ओर इंगित करती हैं।०० वीरमाता अदिति के मन्त्र प्रसूति ज्ञान से ओतप्रोत हैं। माता के वात्सल्यपूर्ण ममत्व की सहज अभिव्यक्ति का वर्णन अनेकशः मन्त्रों में प्राप्त होता है।