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________________ 32 / Jijñāsā दर्शन, इतिहास और संस्कृत के गहन ज्ञान ने इनसे जो ग्रन्थ लिखवाए उनमें गूढता, प्रौढता और संक्षेप में बात कहने की प्रवणता होना स्वाभाविक था। राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी से छापे इनके ग्रन्थों में “मूल्यमीमांसा" इन सभी लक्षणों को चरितार्थ करती है। बौद्ध दर्शन और बुद्धकालीन भारत पर इनके ग्रन्थ सर्वोत्कृष्ट माने जाते हैं। ज्योतिष पर भी उनका अधिकार था। बाद के दिनों में वेदवाङ्गमय का सर्वांगीण विमर्श प्रस्तुत करने हेतु लिखा गया इनका ग्रन्थ वैदिक संस्कृति भी शिखर स्तर का ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ जब लिखा जा रहा था, मैं इनके निकट संपर्क में था क्योंकि इनका यह शौक सुप्रसिद्ध था कि इलाहाबाद में रहते हुए अपने जन्म दिन पर इलाहाबाद म्यूजियम में देश के शिखरस्थ मनीषियों की किसी न किसी विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी अवश्य आयोजित करते थे। मुझ जैसे अधकचरे को भी ये अवश्य बुलाते थे। मैंने ग्रन्थ का शीर्षक सुझाया था "वैदिक वाड़मय" पर उन्होंने वैदिक संस्कृति नाम क्यों रखा इसका औचित्य उन्होंने यह बताया कि इसमें उपनिषद् वॉडमय का भी पूरा विमर्श हैं। यह शीर्षक ही दोनों को समाहित कर सकता है। उनके संस्कृत भाषण का तो मैं गत चार दशकों से साक्षी रहा हूँ| संस्कृत जैसी कलासिकल भाषा की विशेषता यह है कि एक वाक्य बोलते ही यह बात देती है कि वक्ता कितने पानी में है, उसके पीछे किस तरह की साधना के कितने वर्ष लगे होंगे। जयपुर आने पर इन्होंने इतिहास के प्रोफेसर के रूप में एक संस्कृत संगोष्ठी में संस्कृत में भाषण दिया था, मैंने अंग्रेजी के लेक्चरर के रूप में। मैं उसका संयोजक था। जब इन्हें यह ज्ञान हुआ कि मेरे पिता भटट् मथुरानाथ शास्त्री है। जो संस्कृत के युगपुरूष हैं और जिनका साहित्य इन्होंने छात्रावस्था से पढ़ा था, तो इनका असीम अनुग्रह मुझ पर हो गया जो अबतक रहा। इन्होंने वहीं बताया था कि नेताजी सुभाष बोस के मित्र क्षेत्रश बाबू से ये संस्कृत पढ़े थे और उनके सामने भी उनकी कक्षाएँ उनके आदेश पर ये संस्कृत में पढाते थे। इससे आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि संस्कृत पर इनका किस गहराई तक अधिकार था। आज शायद देश में चार-पाँच विद्वान ही उस कदकाठी के बचे हों। अन्तिम दिनों में पांडेजी इलाहाबाद छोड़कर भोपाल आ गये थे। इनकी पुत्री वरिष्ठतम प्रशासक थी मध्यप्रदेश शासन में। फिर दिल्ली भी रहे जहाँ नेत्रज्योति क्षीण होने पर भी ऋग्वेद का संतुलित भाष्य तैयार कर रहे थे क्योंकि उनका मानना था कि विश्व में मानव के पुरूषकामय की इस सर्वप्रथम पुस्तक के साथ इसलिए न्याय नहीं जो पाया कि महीधर, सायण, दयानन्द और अरविन्द तक जिस जिसने इसका भाष्य किया, अपने पूर्वाग्रहो से चश्में से देखकर अपने मन की गवाही से अपना अर्थ लगाया। काल की यही तो क्रूरता है कि उसने इन्हे वह भाष्य पूरा नहीं करने दिया। उन जैसा गहन विद्वान जो भी सारस्वत कार्य हाथ मे लेता है, उसकी परिणति अत्यन्त मर्मस्पर्शी, कालजयी ग्रन्थ के रूप में होती है यह हम देख चुके थे संस्कृति, दर्शन और प्राचीन इतिहास से संबद्ध उनके ग्रन्थों में विशेषकर संस्कृत में लिखे तुलनात्मक धर्म और तुलनात्मक सौन्दर्यशास्त्र के ग्रन्थों में। तुलनात्मक धर्म पर काशी के संस्कृत विश्वविद्यालय में दिए इनके संस्कृत स्मारक भाषण का ग्रन्थाकार प्रकाशन हुआ है “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' शीर्षक से। उसमें इन्होंने धर्म का जो विवेचन किया है वह मानव के इतिहास में धर्म की अवधारणा से लेकर धर्म को संप्रदाय बना देने वाले पन्थों की विवेचना तक समाहित किये हुए है। कोई संस्कृत पंडित ऐसा ग्रन्थ लिख पाए यह कम ही संभव है। हससे अधिक अजूबा है इनका तुलनात्मक सौन्दर्यशास्त्र जिसका शीर्षक है “सौन्दर्य दर्शनविमर्श:"। इसमें यूनानी सौन्दर्यशास्त्र से लेकर बॉस गार्टन की जर्मन कला परिभाषाओं से होते हुए संस्कृत काव्यशास्त्र को लपेट कर फ्रांसीसी क्रोचे और अस्तिववाद तक ये अपने विमर्श को ले आए हैं। संस्कृत में यह सब लिखना कठिन होता है यद्यपि संस्कृत ही विश्व में ऐसी एक भाषा है जिसमें विश्वभर की अवधारणाओं के लिए शब्द बन सकते हैं। ऐसे शब्द बनाते-बनाते इन्होंने शायद विनोद में जर्मनी के एक सौन्दर्यशास्त्री बॉमगगार्टन जो ललित कलाओ के वर्गीकरण का जनक माना जाता है, का नाम भी संस्कृत में उतार डाला "वृक्षोद्यान" (जर्मनी मे बॉम वृक्ष होता है, गार्टन उद्यान याने गार्डन)। ऐसे मूर्धन्य विद्वान का 88 वर्ष की उम्र में 21 मई 2011 को सदा के लिए चला जाना माँ भारती के हृदय पर लगा एक धक्का सा लगता है जब हम यह देखते है कि ऐसे बहुआयामी प्रौढ़ विद्वान एक एक कर चले जा रहे हैं और उनकी जगह लेने वाला नई पीढ़ी में कोई नहीं दिखना क्योंकि नई पीढ़ी वेतनमानों के लिए चल रहे आन्दोलनों, आपसी गुटबाजी और कंम्यूटरी चैटिंग से फुर्सत पाए तो लगन से गहन अध्ययन कर पाए। वह हो नहीं रहा।
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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