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26 / Jijñāsā
अभिनवगुप्त तथा उनके पूर्ववर्ती विद्वानों द्वारा की गई रस निष्पत्ति की व्याख्या तथा काव्य नाटक आदि के उदाहरणों से अनायास ही यह प्रतीति होने लगी कि रस सूत्र केवल नाट्य आदि दृश्य कलाओं व साहित्य में ही सिद्ध है। रसनिष्पत्ति की सभी कलाओं में प्रयोजनीयता को सिद्ध करने के लिए यह आवश्यक है कि रस सूत्र की सीधी व्याख्या, उसके दार्शनिक आयामों से अलग हटकर की जाये। विभावानुभावसंचारी के संयोग से रसनिष्पत्ति की व्याख्या अन्य कलाओं के संदर्भ में करने से ही रस सिद्धान्त की सार्वभौमिकता तथा सभी कलाओं में व्याप्ति को सिद्ध किया जा सकता है।
भारत के रस सूत्र को ही यदि बीच की सारी दार्शनिक चर्चा से अलग करते हुए, उसमें से केवल रस निष्पत्ति का स्थान, अनुमिति और अनुभूति प्रक्रिया स्वरूप, भावित रस और आत्मविश्रान्ति एवं ध्वनि को ही ग्रहण किया जाये तो रस सिद्धान्त आधुनिक कला प्रयोगों में भी उसी प्रकार सिद्ध है जैसे काव्य तथा नाटकादि दृश्य कलाओं में आचार्य पाण्डे ने इसी दृष्टि का अनुसरण करते हुए रसतत्त्व विमर्श की रचना की तथा प्रमुखतः रस क्या है, रस का स्वरूप, सौन्दर्यानुभूति की प्रक्रिया तथा व्यंग्यत्व की परिभाषा की। इस प्रकार रस सिद्धि के मूल आधार, जो सभी कलाओं में व्यक्त हैं, उन्हीं का विवेचन किया है उन तत्त्वों के शाब्दिक व लाक्षणिक प्रयोगों तथा दार्शनिक ऊहापोह और ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक विवेचन को इतना मुखर नहीं किया कि उस वाद-विवाद में मूलतत्त्वों का सूत्र ही लुप्त हो जाये ।
अतः गोविन्दचन्द्र पाण्डे के अनुसार बहुत से अर्थों के समवाय रूप होने पर भी नाट्य एवं अन्य सभी कलाओं में रस ही प्रधान है। रस तत्त्व की कारिकाओं के माध्यम से उन्होंने रस की सभी कलाओं में सार्वभौमिकता का व्याख्यान किया है। यहाँ समवाय का अर्थ है कला के अंग जिन्हें भरतमुनि ने नाट्य के संदर्भ में कहा है भरतमुनि के इस विवेचन से सामान्य जन रस सिद्धि का उद्देश्य केवल नाट्य में ही समझने लगा आचार्य गोविन्द चन्द्र पाण्डे ने भरतमुनि के बाद की दार्शनिक व्याख्याओं का नामोल्लेख मात्र करते हुए केवल भट्टनायक की व्याख्या कोही ग्रहण किया है क्योंकि भट्टनायक की व्याख्या की सभी कलाओं में व्याप्ति है। आचार्य ने अपने मूल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए केवल भट्टनायक की रसानुभूति की प्रक्रिया तथा साधारणीकरण को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया है। भट्टनायक तथा अभिनवगुप्त का मत ही सर्वसम्मति से स्वीकृत तथा सभी कलाओं से रसानुभूति को स्पष्टतः सिद्ध भी करता है। यह रसानुभूति संगीत, चित्र, मूर्ति, साहित्य, नृत्य, नाट्यादि सभी कलाओं का उद्देश्य तथा अन्तिम लक्ष्य है।
आचार्य पाण्डे ने अभिनव गुप्त की व्याख्या के साथ ही सौन्दर्यदर्शनविमर्श की इति कर दी है, क्योंकि यह रसानुभूति की प्रक्रिया की सम्यक सम्पूर्ण व्यापक व्याख्या है जो आधुनिक कलाप्रवृत्तियों के संदर्भ में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी पारम्परिक कलाओं के संदर्भ में है साथ ही यह भी मान्य है कि इसके पश्चात् इसके तुल्य कोई समग्र व्याख्या उपलब्ध भी नहीं है, तथापि पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र के एकांगी अध्ययनों के उद्धरणों का अभाव खटकता है। आधुनिक युग में लिखी गई पुस्तक में रसानुभूति की प्रक्रिया तथा रूपतत्त्व की व्याख्या के पूर्वपक्ष में पाश्चात्य दार्शनिकों के समानुभूति, मानसिक अंतराल तथा निर्वैयक्तिकता के सिद्धान्तों का उल्लेख भारतीय रस सिद्धान्त की समग्रता की ही पुष्टि करता। यद्यपि समानुभूति का सिद्धान्त विषय-विषयी की द्वैत चेतना के लोप की बात करता है या आस्वादशील अहं के प्रक्षेपण की, जबकि भारतीय दार्शनिक विषय में विषयी के अहं का विलय या तदाकरण या पारस्परिक अन्तः प्रवेश को आत्मास्वाद मानते हैं इस अभाव को आचार्य की दूसरी पुस्तक मूल्य मीमांसा में विस्तार से प्रस्तुत किया है। अस्तु सम्पूर्ण सौन्दर्य तत्त्व के ग्रहण के लिए दोनों पुस्तकों को मिलाकर देखने की आवश्यकता है।