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आचार्य गोविन्दचन्द्र पाण्डे का सौन्दर्य विमर्श / 19
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तथा तीव्रता इन्द्रियगोचर रूप को प्रभावित करती है। रूप से दृश्य, श्रव्य, गतियुक्त तथा मानस रूपों का अनुसंधान होता है। रूपतत्त्व के विवेचन के प्रारम्भ में ही उसकी अस्थिरता, क्षणिकता, आलोक-सापेक्षता, संस्कृति- सापेक्षता की चर्चा आचार्य ने की है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि कलाकृतियों के रूप तथा यथार्थ जगत के रूपों के प्रत्यक्षों को प्रेक्षक की चेतना भी प्रभावित करती है । यथार्थ जगत की घटनाओं, दृश्यों एवं वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण में प्रेक्षक की चेतना विभाजित रहती है। उसकी चेतना का एक भाग भौतिक समायोजन में व्यस्त रहता है। इसके विपरीत कला रूपों का आस्वाद प्रेक्षक अपनी सम्पूर्ण चेतना से करता है यही कारण है कि चित्र, मूर्ति, वास्तु, नृत्य, संगीत, साहित्य, आदि में प्रस्तुत रूपों का आस्वादन वास्तविक रूपों की अपेक्षा अधिक आनन्ददायक होता है। इसके साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि मानव निर्मित चित्र का रूप पट, द्रव्य, वर्ण, आदि के नष्ट होने पर भी चित्रबुद्धि या स्मृति के स्थायी होने के कारण नष्ट नहीं होता। इस आधार पर सूर्योदय की स्मृति भी स्थायी हो सकती है। अतः सौन्दर्य-बुद्धि की स्थिरता का मुख्य कारण भौतिक रूप न होकर वह प्रातिभ रूप है जो मन में उद्भूत होता है। इस आधार पर सूर्योदय आदि नैसर्गिक रूप भी चित्रादि में प्रस्तुत कलात्मक या प्रातिभ रूप होने पर ही सनातन नव्यता के कारण सौन्दर्य रूप है न कि भौतिक स्थायित्व के कारण । सौन्दर्य-बुद्धि की प्रामाणिकता स्वानुभूति पर आधारित होती है संकेत रचना या व्यञ्जक रूप का आश्रय लेकर कोई अवर्णनीय अतिशय (अर्थ) स्फुरित होता है, वही सौन्दर्य है।
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सौन्दर्यबुद्धेः प्रामाण्यं स्वानुभूतिनिबन्धनम् । स्फुरत्यतिशय: कश्चित् संकेत्तरचनाश्रितः ।।
(सौन्दर्यदर्शन विमर्श, रूपतत्त्व, 2)
इसके साथ ही आचार्य ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस प्रातिभ रूप का ज्ञान ही सौन्दर्य बोध है। शिल्पी तथा कवि जिस रूप का निर्माण करते हैं, वह प्रातिभ रूप का अभिव्यञ्जक होता है तथा सामान्य जन जिसे कल्पना द्वारा ज्ञेय मानता है, उस रूप के निर्माण के विज्ञान को ही कला कहा गया है। जैसे, देव प्रतिमा के विधान में शिल्पी की कला स्वाधीन नहीं होती, अपितु शास्त्र द्वारा ज्ञेय रूप का निर्माण होती है। यह ज्ञेय रूप देवता का अभिव्यञ्जक रूप होने के कारण कला अवश्य कहलायेगा ( सौन्दर्य दर्शन विमर्श, रूपतत्त्व, कारिका - 3 ) । देवता - मूर्ति के इन ध्यान रूपो को भी शिल्पी ध्यान द्वारा अपने मनोगत रूप में परिवर्तित करने के बाद मूर्ति बनाने में प्रवृत्त होता है अतः देवताओं के मूर्ति शिल्प भी कला कहलायेंगे। रूप निर्माण की यह प्रक्रिया सभी दृश्य, श्रव्य, गतिमान तथा स्थिर रूपों में प्रयुक्त होती है। अस्तु मानस रूप के बाह्य रूपान्तरण के विज्ञान को ही कला कहा है। इसकी पुष्टि अमरकोश में दिये गये विज्ञान के अर्थों से भी होती है। अमरकोश ने विज्ञान के दो अर्थ किये हैं- शास्त्र तथा शिल्प शास्त्र के निर्देशों का ज्ञान मात्र कर लेने पर भी प्रतिमा या रूप का निर्माण (शिल्प) तभी संभव होता है जब उसके साथ कारयित्री तथा भावयित्री प्रतिभा का संयोग हो, अर्थात् उस विषय का कल्पना द्वारा मानस में साक्षात्कार हो तथा मानस रूप को बाह्य व्यञ्जक रूप में परिवर्तित करने की प्रतिभा भी हो जो पृथक-पृथक कलाओं के संदर्भ में विविध होती है। अस्तु, शुक्रनीति सार का भारतीय शिल्पियों को यह निर्देश कि “आत्मानं ध्यायेत् कुर्यात् वा" उचित ही है।" रूपतत्त्व का विवेचन करते हुए आचार्य पाण्डे ने कला की परिभाषा भी इसी प्रकार की है। सौन्दर्य व्यञ्जक रूप का निर्माण ही कला है। सूक्ष्म से लेकर स्थूल रूपों तक सभी दृश्य, श्रव्य, गतिमान रूपों का निर्माण कला है पहले शास्त्रोक्त ध्यान (रूप) या प्राकृतिक दृश्य रूपों से प्राप्त इन्द्रिय प्रत्यक्षों को अन्तस्थ कर लेने पर ही कला द्वारा कृति का निर्माण होता है। यह रूप मूर्ति, चित्र, नृत्य, संगीत, काव्य, कुछ भी हो सकता है। इन दोनों स्थितियों में मनोगत रूप तथा व्यक्त कला रूप ही व्यंग्य तथा व्यञ्जक कहे जाते हैं।