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Jijñāsā
प्राचीन शास्त्रीय मेधा को पुनः जीवित कर संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के लेखकों के लिए एक प्रशस्त मार्ग प्रस्तुत किया है। अभिनवगुप्त की पदावली तथा दृष्टान्तों के साथ ही नए उदाहरण देते हुए उन कलाओं के उदाहरण भी दिये हैं, जिन्हें अभिनवगुप्त आदि आचार्यों ने केवल व्याप्ति द्वारा ही समझाया था। अधिकांश विद्वान् दृष्टान्त रूप में काव्य, कला या नाट्य के उदाहरणों द्वारा ही अपनी व्याख्या को प्रमाणित करते हैं तथा चित्र, मूर्ति, वास्तु तथा संगीत में उन सिद्धान्तों की व्याप्ति होने के कारण उसे छोड़ देते हैं, परन्तु आचार्य पाण्डे रूप की चर्चा में मूर्तरूपों में चित्र एवं मूर्ति, तथा शब्द रूपों में काव्य तथा संगीत का उदाहरण देते हुए रूप की अभिव्यञ्जकता सिद्ध करते हैं। तृतीय भाग में रस तत्त्व की व्याख्या है। इस संदर्भ में भी संगीत, चित्र तथा मूर्तिकला में भी रसनिष्पत्ति का उदाहरण देकर विभावानुभावव्यभिचारी भावों की स्थिति कलाकृति में निदर्शित करते हुए रस निष्पत्ति सिद्ध करते हैं।
यद्यपि अभिनवगुप्त के अभिनवभारती तथा ध्वन्यालोकलोचन में नाट्यशास्त्र के अन्य विवृत्तिकारों के अभिमत सुसम्पादित रूप में विद्यमान हैं, किन्तु आधुनिक अध्येताओं के लिए पाश्चात्य दार्शनिक विचारों के परिप्रेक्ष्य में सौन्दर्यशास्त्र का पुनः प्रतिपादन आवश्यक है जिससे एक तो पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत मानसिक अंतराल तथा समानुभूति के सिद्धान्तों के अधूरेपन का ज्ञान होता है, दूसरे, इन सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में रससिद्धान्त की प्रामाणिकता तथा सार्वभौमिकता की भी पुष्टि होती है। साथ ही, भट्ट लोल्लट, शंकुक तथा भट्टनायक के सिद्धान्तों द्वारा रससिद्धान्त की पूरकता तथा अभिनवगुप्त की व्याख्या की सम्पूर्णता का बोध होता है। सौन्दर्य की दार्शनिक व्याख्या का यह सिद्धान्त सभी कलाओं पर पूर्णतः प्रयोज्य है। इस दृष्टि से आचार्य पाण्डे ने इस पुस्तक द्वारा आस्वाद मीमांसा की पुनःस्थापना की है।
सौन्दर्यतत्त्व का विमर्श
पुस्तक के प्रथम भाग में अवशिष्ट प्राचीन भारतीय साहित्य में सौन्दर्य शास्त्र जैसे किसी ग्रन्थ या विद्याओं की सूची में इसके नामोल्लेख के अभाव का परिहार करते हुए आचार्य पाण्डे ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि विद्याओं की संख्या में अस्थिरता कई कारणों से हो सकती है। दृष्टि के भेद से, सांस्कृतिक भेद से तथा देश-काल के भेद से विद्याओं के स्वरूप तथा नामों में अन्तर दिखाई पड़ता है, परन्तु विषय वस्तु की दृष्टि से नाम एक ही होगा। जैसे, सौन्दर्यशास्त्र नाम से यद्यपि भारतीय शास्त्रों में कोई विद्या का विभाग नहीं है, परन्तु नाट्य, अलंकार, शिल्प, संगीत, आदि शास्त्र सौन्दर्य की मीमांसा ही प्रस्तुत करते हैं। फिर भी सौन्दर्य के व्यापक तत्त्वों का विचार करने वाले सौन्दर्य शास्त्र को स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में ही प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। सौन्दर्य दर्शन के विमर्श के रूप में सौन्दर्य तत्त्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है तथा उसके व्यक्त होने का आधार अभिव्यञ्जक रूप है और अभिव्यञ्जक रूप के साक्षात्कार से आनन्द की उपलब्धि ही रस है। इस प्रकार सौन्दर्य तत्त्व, अभिव्यञ्जक रूप तथा तज्जन्य आनन्द- इन तीन के अन्तर्गत ही अवान्तर विषयों के रूप में विविध कलाकृतियों (चित्र, मूर्ति, नृत्य, वास्तु, संगीत, साहित्य, आदि) के स्वरूप आदि का समाहार किया गया है। अतः पुस्तक के तीन प्रमुख भाग हैं- सौन्दर्य दर्शन, रूपतत्त्व तथा रसतत्त्व। रूप तथा रस तत्त्व सौन्दर्य दर्शन की विषयवस्तु को ही प्रतिपादित एवं व्याख्यायित करते हैं। अस्तु, लेखक का मूल प्रतिपाद्य सौन्दर्य दर्शन का विमर्श ही है।
रूपतत्त्व का विमर्श
आचार्य पाण्डे ने पाश्चात्य तथा प्राच्य दर्शनों के प्रत्ययवादी चिन्तन का समन्वय करते हुए रूपतत्त्व के विमर्श को चिन्तन की मौलिक दिशा प्रदान की है। सभी कलाओं में रूपतत्त्व ही सौन्दर्य का व्यञ्जक होता है। अतः इसके माध्यम से सभी कलाओं का अन्तःसम्बन्ध भी सिद्ध होता है। उनके अनुसार सभी प्राकृतिक रूप अस्थिर होते हैं, क्योंकि उनका मूल कारण परमाणु निरन्तर संचरणशील है तथा उपादान कारण सूर्य का प्रकाश है जिसकी दिशा