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________________ xxx / Jijñiyasā कहने से अधिक संतोषजनक यह लगता है कि इसे एक अव्यक्त और दुर्बोध सत्य का संकेत माना जाय । प्राणिविज्ञान और मनोविज्ञान के मत और युक्तियाँ मुझे एकदम नहीं भाती प्राणी विकासवान् ईश्वरवाद से कहीं अधिक सदोष तार्किक मत है। जिसमें क्षीण प्रमाणों के आधार पर प्रकाण्ड वाद स्थापित किये गये हैं। ईश्वर के प्रत्यय से उसके अस्तित्व को सिद्ध करने वाली ऑण्टोलॉजिकल (Auntological) युक्ति काण्ट के खण्डन के आधार पर सभी पाश्चात्य दार्शनिक खण्डित मानते हैं। किन्तु स्वयं कास्ट ने ही बाद में अपने इस खण्डन पर संक्षेप में संतोष प्रकट किया योगदर्शन में भी यही युक्ति मिलती है। जिसमें ज्ञान के तारतम्य से सर्वज्ञ की कल्पना की गयी। जैसे कास्मोलॉजिकल ( Cosmological) युक्ति ईश्वर को जगत्स्रष्टा के रूप में कल्पित करती है और लिनियोलॉजिकल ( Leniological) युक्ति उसे जगन्नियन्ता के रूप में कल्पित करती है ऐसे ही ऑन्टोलॉजिकल युक्ति उसे जगद्गुरू के रूप में कल्पित करती है। ईश्वर के विषय में तीसरी कल्पना ही सभी धर्मों में व्याप्त रूप से मिलती है। नास्तिक दर्शनों में भी सर्वज्ञ जगद्गुरू स्वीकार किया जाता है। जो धर्म-दर्शन ईश्वर को जगत् का कर्त्ता या नियामक स्वीकार करते हैं उनके मत में भी जगत् की रचना और नियति नियमाधीन ही होती है। भारतीय आस्तिक दर्शनों में इस नियामकता का साक्षात् आधार मानवीय कर्म है। नैतिक नियम ईश्वर के बनाये हैं। किन्तु सृष्टि और भोग व्यवस्थायें सब कर्म सापेक्ष हैं। इस प्रकार ईश्वर का स्रष्टा और नियन्ता का रूप निरपेक्ष नहीं रहता । कर्मवाद और संसारवाद की कल्पना से संसार में दुःख और पाप के अस्तित्व का भी ईश्वर के अस्तित्व से सामंजस्य स्थापित होता है । संसारवाद में ही मुक्ति की आकांक्षा निहित है और ईश्वर का विश्व गुरू के रूप में अस्तित्व मुक्तिप्रद ज्ञान के दाता के रूप में बनता है। तार्किक दृष्टि से ये सभी मत और युक्तियाँ अनैकान्तिक हैं। किन्तु इनसे प्रकाशित सम्भावनायें ईश्वर में विश्वास को समर्थन देती हैं। दूसरी ओर ईश्वर में अविश्वास के लिए जो युक्तियाँ दी जाती हैं उनमें किसी प्रकार निश्चायक दम नहीं है। भौतिकवादी दृष्टि से कोई युक्तिसंगत दर्शन नहीं बन पाता और न विश्व की पहेली को समझने का कोई युक्तियुक्त सूत्र मिलता है। अतएव न्यायानुसारी दर्शन की दृष्टि से ईश्वर का अस्तित्व सम्भाव्य रहता है और उसमें विश्वास का आधार आप्तवचन ही मुख्यतः ठहरता है। इन आप्तवचनों का समर्थन किसी-न-किसी रूप में अधिकांश मनुष्यों को अपने जीवन में आभासित होता है। धर्म के क्षेत्र में आगम विश्वास और अनुभूति ईश्वर के अस्तित्व की ज्ञापक होती है। दर्शन के क्षेत्र में सत् की खोज ही ईश्वर विषयक जिज्ञासा का सही मार्ग है। ईश्वर सत्य है कि नहीं इस प्रश्न को बदल देना चाहिए कि सत्य क्या है? गाँधी जी का कहना था कि सत्य ही ईश्वर है, दार्शनिक के लिए यही सही सूत्र है क्योंकि भौतिकवाद के निरस्त होने पर और सत्य की आध्यात्मिक के प्रतिष्ठित होने पर अतीन्द्रिय लोकोत्तर चेतना अथवा ज्ञान का अस्तित्व असंदिग्ध हो जाता है। इससे आगे न्यायानुसारी दर्शन नहीं जा सकता राम अतर्य बुद्धि मन बानी || क्या धर्म सत्य के ही ज्ञान पर आधारित है और धोखा है? इस प्रश्न पर मैंने भक्तिदर्शनविमर्श: और एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति में विस्तार से विचार किया है। मुझे ये लगता है कि थियॉलाजी चर्च और बाहरी कर्मकाण्ड के द्वारा परिभाषित धर्म में क्रान्ति और प्रवंचना का हाथ निर्विवाद है। वास्तव में यह भ्रम रहस्यात्मक आगम, आध्यात्मिक साधना और साधु समाज के रूप में मिलता है। धर्मनिष्ठा के लिए कर्मयोग का नैतिक जीवन, ज्ञानयोग की मतवाद रहित जिज्ञासा और भक्तियोग की आग्रहशून्य साधना आवश्यक है। धर्म निजी अन्तर्जीवन में उपजता और सन्दर्भित होता है। बाहरी जीवन में उसका प्रकाश उदात्त शील के रूप में होता है। धर्म और विज्ञान की इतिहास में क्या भूमिका है? एक प्रचलित मत के अनुसार धर्म प्राचीन मनुष्य के अज्ञान का कुहासा था जो कि विज्ञान के विकास से क्रमशः दूर रहा। इतिहास को विज्ञान और प्रविधि के सहारे क्रमश: सामाजिक विकास का इतिहास माना जाता है। इनका यह मत भौतिकवादी दर्शन और सभ्यता का प्रपंच है। 'न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो' मनुष्य सदा जिस सुख, संतोष, शांति और आनन्द को ढूँढ़ता है वह बाहरी साधनों से प्राप्त नहीं किये जा सकते। सच्चे धर्म से इनकी प्राप्ति सम्भव है। विज्ञान की भूमिका जीवन की सुरक्षा और अनित्य सुख की प्राप्ति के लिए है। यह एक अनिवार्यता है बिना जीवनरक्षा के साधना सम्भव नहीं है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' इसलिए विज्ञान और प्रविधि, समाज और संस्कृति के उसी प्रकार के अध्ययन है जैसे देह मानव चेतना का
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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