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विचार-यात्रा / xxvii
सत्य की अन्तिम कसौटी है। ज्ञानगत प्रामाण्य का मूल्य स्वसंवेदन ही हो सकता है। यद्यपि अप्रामाण्य का पता सविकल्प ज्ञान अथवा ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष के बाधित होने से ही चलता है। अपरोक्षानुभूति का ही नामान्तर सत्य है यद्यपि उसकी व्याख्यायें असत्य हो सकती हैं। बलिक ये कहना चाहिए कि वे व्याख्या में किसी न किसी अंश में असत्य ही होती हैं।
अध्यात्मविद्या के चिरन्तन महत्व का पता मनुष्य को दु:ख अथवा असन्तोष के बोध से होता है। मृत्यु की आशंका और अमृतत्त्व की अभीप्सा मनुष्य के हृदय में सहज रूप से आदिकाल से रही। इसी प्रकार जीवन और बाहरी विश्व में एक अदृश्य नियामक की प्रतीत रही है। किसी न किसी रूप में मनुष्य अकेला और सहाय नहीं हो सकता उसे इसी अदृश्य स्रोत से सहायता की आशा रहती है। इन्हीं तत्त्वों से सभी धर्मों की प्रतिष्ठा रही। इनके उत्तरों से ही अध्यात्मविद्या का सनातन रूप बना। यद्यपि यह सनातनविद्या विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में सापेक्ष व्याख्याओं से संकुचित मलिन होती रही। धर्मशास्त्रीय परम्पराओं सनातन आम्नाय का सीमित प्रतिनिधित्व करने पर भी भ्रान्तियाँ ही कहलाती हैं। किसी कारण से धर्मशास्त्रीय परम्परा के रूप में अध्यात्मविद्या तिरस्कृत हुई है। वस्तुत: इन विभिन्न परम्पराओं को प्रस्थानभेद के सिद्धान्त के अनुसार समन्वित रूप में समझा जा सकता है। जैसा भारत में अनेक मनीषियों ने प्रतिपादित किया है।
वस्तुत: अध्यात्मविद्या के मूलआगम सदा एक काव्यात्मक रूप में मिलते हैं चाहे वे वेद हो या सन्त-वाणी सिवाय रूपकों की भाषा के और कोई भाषा आध्यात्मिक अनुभूति को संप्रेषित नहीं कर पाती। जिसे काव्य कहते हैं उसका भी आदर्श यही है, इसीलिए भट्टतौत ने कहा है नानृषिः कविरित्युक्तम् ऋषिस्तु किल् दर्शनात्। सर्वोत्तम काव्य भी आध्यात्मिक सत्य को ही प्रतिपादित करता है। उसका मनोरंजक आवरण वही है। जिसके लिए कहा गया है : हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापि हितं मुखम्। प्रकारन्तर से उसे एक प्रकार का उपाय-कौशल्य कहा जा सकता है. जो स्थूल जीवन का प्रतिबिम्बन करना चाहता है, वह एक कल्पित इतिहास मात्र है। कोई भी साहित्यकार या कलाकार वस्तुतः व्यवहार के धरातल पर बाहरी वस्तुस्थितियों का प्रमाता बनकर अपनी साधना को पूरी नहीं कर सकता। काव्य और कला का जीवन कल्पना का जीवन है, किन्तु मिथ्या और अपार्थक कल्पना का नहीं। वह भी सत्य का अनुसन्धान है द्रव्य सनात्मक सत्य का नहीं, मूल्यात्मक सत्य का। साहित्यकार अनिवार्यतया बाहरी पदार्थों को देखते-सुनते उनका अर्थ खोजते अन्तश्चेतना के प्रवाह में अवगाहन करने लगता है। जैसे वैज्ञानिक द्रव्यसत् पदार्थों की नियामकता के सूत्रों को तर्कबुद्धि के स्तर पर खोजता है। ऐसे ही कलाकार अनुभूत विषयों के अन्तर्भूत अर्थों का अनुसन्धान सौन्दर्यबुद्धि के स्तर पर करता है। यह अनुसन्धान जहाँ एक ओर विषयाकारों का उद्ग्रहण कर उन्हें चेतना के अपरोक्ष प्रतिबिम्ब बना देता है, वहीं वह दूसरी ओर इन बिम्बों को स्वतंत्र संवित् की आनन्दमयता या मूल्यवत्ता के प्रतिबिम्ब बनाता है। जैसे वैज्ञानिक बाहरी वस्तुओं में कार्यकारण परतन्त्रता को खोजता है वैसे कलाकार अनुभूति विषयों को मूल्यवत्ता प्रदान करने वाली अन्तरस्वतंत्रता की खोज करता है। सौन्दर्य की खोज इस प्रकार सत्य की खोजकारी एक आयाम है। सत्य सिर्फ वस्तुपरक ज्ञान का ही फल नहीं है वह मूल्यपरक ज्ञान का भी धर्म है। सौन्दर्यात्मक मूल्य या विश्व वस्तुजगत पर निर्भर नहीं करता। यद्यपि वस्तु जगत् में उसकी अधूरी प्रतिच्छाया उपलब्ध होती है। इसीलिए नियतिकृत नियमरहिता श्लादैकमयीं अनन्य परतन्वाम् कहा गया है। इस पर अक्सर यह आपत्ति की जाती है कि ऐसा नितान्त काल्पनिक संसार यथार्थ निरपेक्ष होने के कारण अप्रासंगिक बन जायगा। दूसरी
ओर रससृष्टि में युगापेक्षी सूत्रों को खोजना कठिन नहीं है। जिससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तथाकथित स्वतंत्र रससृष्टि वस्तुत: गम्भीर मानव सत्य की ओर से उदासीन विलासी कल्पना का ही नामान्तर है। यह आक्षेप प्राचीन साहित्य पर बहुरूप में आजकल व्याप्त है। वस्तुत: कवि की स्वतंत्रता तथ्यों से है न कि सत्य से। साहित्यिक रचना वैज्ञानिक या ऐतिहासिक तथ्यों का विवरण नहीं देती किन्तु वह मानव स्वभाव और उसके विश्व से लटस्थ नहीं होती। मानव विश्व का ऐतिहासिक पक्ष इसमें सनातनता के द्वारा प्रभावी होता है। वह अपनी अपेक्षित स्थायिता के रूप में प्रविष्ट होता है। राजा न रहे, सामन्त न रहे, जनतन्त्र हो या जनजाति हो, जीवन हो, सभी में मानव समाज नेतृत्व, अधिकार और व्यवस्था का आक्षेप करता है। इन्हीं प्रकार के तत्त्वों के द्वारा अथवा उनकी विकृतियों को प्रकाशित करने के द्वारा राजकीय राजनीतिक जीवन का वर्णन साहित्य में अनुप्रविष्ट होता है। राजवंशों के न रहने से रघुवंश कालात्यस्त नहीं हो जाता।