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________________ 160 / Jijnāsā इतिहासज्ञों और वैज्ञानिकों को इस विश्वरचना का उद्देश्य समझ में नहीं आयेगा। किन्तु प्राचीन अथवा वैदिक दृष्टि ने सृष्टि की कल्पना की है। उनकी मान्यता है कि सृष्टि का आदि बिन्दु चैतन्य होने की वजह से इसके प्रसव का उद्देश्य है जिसे कभी महामाया का चिन्मय विलास तो कभी दिव्यलीला के लिए दिव्य इच्छा का परिणाम के रूप में कल्पित किया गया। यह सब कुछ ऋत - चक्र' के द्वारा संचालित है। अनृत के प्रवेश से जब इसमें व्यतिक्रम उत्पन्न होता है तब नरोत्तम की इच्छा हस्तक्षेप करती है और ऋत-चक्र को ठीक करके सम्भवामि युगे युगे का वचन देती है। इस प्रकार वैदिक दृष्टि इतिहास को चक्रीय - छन्द में घूमता हुआ स्वीकार करती है। जबकि पृथ्वी पर खड़े होकर दृष्टिपात करने वाले इतिहासकार को काल की गति रेखीय लगती है। परन्तु काल के शिखर पर और ध्यानलोक के शिखर पर मन को आसीन करने वाली ऋषि-दृष्टि के सम्मुख देश-काल का विराट् महाप्रवाह स्पष्ट था। उन्होंने काल की गति दुहरी देखी - प्रत्यक्ष और शाश्वत । इसीलिए उन्होंने जिस इतिहास की व्याख्या की उसमें वर्तमान के साथ-साथ नित्य और अस्ति का, जीव और ब्रह्म का आत्मा और परमात्मा का लौकिक और पारलौकिक का, भोग और योग का, कामना और साधना का ग्रहण और त्याग का, गृहस्थ और सन्यास आदि का समन्वय स्थापित किया किन्तु इसका ऐतिहासिक लेखा-जोखा शाश्वत के सन्दर्भ में ही रखकर उपस्थित किया । T आर्षकाव्यों में बहुत सी बातें गोपन हैं, जो मन्त्रात्मक हैं। ये भाषा के स्तर पर खुलती नहीं बन्द हो जाती हैं। सारी श्रुतियाँ लक्षणा प्रधान कही गयी हैं । ब्रह्मसूत्र की मान्यता है कि श्रुति लक्षणावती। सूत्र 1.1.22 से 1.1.319 तक आकाश, प्राण, गायत्री, इन्द्र आदि शब्दों के द्वारा इस बात को स्पष्ट करने की चेष्टा की गयी है। उदाहरण के लिए इन्द्र आधिभौतिक पक्ष में युद्ध के नेता है, परम पराक्रमी वीर सेनापति, शत्रुनाशक, पर-पुरंजय, धनदाता, विजयदाता है। आधिदैविक पक्ष में इन्द्र रसप्रदाता वृष्टिकर्त्ता, पुर, पर्वत और मेघ हैं। आध्यात्मिक पक्ष में इन्द्र साधना की शक्ति के प्रतीक हैं, जो साध्य के पास पहुँचाती है और कालान्तर में अनुग्रह कर आनन्द बरसाती है। इसी तरह सविता आधिभौतिक स्तर पर सुमति है, आधिदैविक स्तर पर साध्यकालीन सौर-तेज से अभिन्न हैं, आध्यात्मिक स्तर पर मानव बुद्धि की प्रेरक दिव्यबुद्धि की तेजस्विता ही सविता है। ऐसे ही अश्विनीकुमार आधिभौतिक रूप में समुद्री विपत्तियों के तारक; करामाती चिकित्सक है, आधिदैविक रूप में भोर और सांझ के युग्म है और आध्यात्मिक रूप में साधना की मधुमती भूमिका और चमत्कारिता के प्रतीक हैं इसी प्रकार पूषा, वृहस्पति, मित्रावरुण, सोम, आदि के भी त्रिस्तरीय अर्थ हैं। स्पष्ट है कि आर्षदृष्टि सृष्टि के तीन स्तर पर विचार करती चलती है । प्रसंग के अनुसार इनके अर्थ मुख्य और गौण हो जाया करते हैं। यह परम्परा भी बाद तक चलती दिखायी देती है, जब भक्त ने भगवान् से कहा: 1 A देहबुद्धया तु दासोऽहं जीवबुद्धयात्वदशक। आत्मबुद्धयात्वमेवाहमिति में निश्चिता मतिः। अर्थात् देहबुद्धि से आपका दास हूँ, जीवबुद्धि से आपका अंश, आत्मबुद्धि से जो आप हैं वही मैं हूँ, ऐसी मेरी मान्यता है। ब्रह्मसूत्र में भी श्रुतियों द्वारा पूर्वापर क्रमविहीन बातों का उल्लेख हुआ है, ऐसी अवस्था में सही तथ्य का ज्ञान कैसे हो? इसके लिए कहा गया-समाकत" अर्थात् सूत्रों या सिद्धान्तों को आगे-पीछे खींचकर इसका अर्थ स्पष्ट है कि सम्पूर्ण से सही का आविष्कार सम्भव है, अभिधार्थ में प्रदत्त क्रम से नहीं अर्थात् श्रुतियों का अर्थ जानने में पूर्वापर या ऐतिहासिक क्रम का कोई महत्त्व नहीं ऐसी स्थिति में कोरी ऐतिहासिकता ढूँढ़ते रहना यथार्थ से दूर हटा सकता है।
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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